जीवन उनका नहीं युधिष्ठिर जो उनसे डरते हैं।
वह उनका, जो चरण रोप निर्भय होकर लड़ते हैं। ras kya hai
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इस वाक्य में वीर रस का प्रयोग हुआ है।
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प्रस्तुत संदर्भ जब विजय के पश्चात युधिष्ठिर सभी बंधु- बंधवों की मृत्यु से विचलित हो कहते हैं कि यह राजकाज छोड़ वो वन चले जाएंगे उस समय पितामह भीष्म उन्हें समझाते हैं ----
माना , इच्छित शांति तुम्हारी
तुम्हें मिलेगी वन में
चरण चिह्न पर , कौन छोड़
जाओगे यहाँ भुवन में ?
स्यात दु:ख से तुम्हें कहीं
निर्जन में मिले किनारा
शरण कहाँ पाएगा पर , यह
दह्यमान जग सारा ।
और कहीं आदर्श तुम्हारा
ग्रहण कर नर- नारी
तो फिर जाकर बसे विपिन में
उखाड़ सृष्टि यह सारी ।
बसी भूमि मरघट बन जाये
राजभवन हो सूना
जिससे डरता यति , उसी का
बन बन जाये नमूना ।
त्रिविध ताप में लगें वहाँ भी
जलने यदि पुरवासी ,
तो फिर भागे उठा कमंडलु
बन से भी सन्यासी ।
धर्मराज , क्या यति भागता
कभी गेह या वन से ?
सदा भागता फिरता है वह
एक मात्र जीवन से ।
वह चाहता सदैव मधुर रस ,
नहीं तिक्त या लोना
वह चाहता सदैव प्राप्ति ही
नहीं कभी कुछ खोना ।
प्रमुदित पा कर विजय , पराजय
देख खिन्न होता है
हँसता देख विकास , ह्रास को
देख बहुत रोता है ।
रह सकता न तटस्थ, खीझता,
रोता , अकुलाता है ,
कहता , क्यों जीवन उसके
अनुरूप न बन जाता है ।
लेकिन , जीवन जुड़ा हुआ है
सुघर एक ढांचे में
अलग - अलग वह ढला करे
किसके - किसके सांचें में ?
यह अरण्य , झुरमुट जो काटे ,
अपनी राह बना ले ,
क्रीतदास यह नहीं किसी का
जो चाहे , अपना ले ।
जीवन उनका नहीं युधिष्ठिर ,
जो उससे डरते हैं
वह उनका , जो चरण रोप
निर्भय हो कर लड़ते हैं ।
यह पयोधि सबका मुख करता
विरत लवण - कटु जल से
देता सुधा उन्हें , जो मथते
इसे मंदराचल से ।
बिना चढ़े फुनगी पर जो
चाहता सुधाफल पाना
पीना रस पीयूष , किन्तु
यह मन्दर नहीं उठाना ।
खारा कह जीवन - समुद्र को
वही छोड़ देता है
सुधा - सुरा - मणि - रत्न कोष से
पीठ फेर लेता है ।
भाग खड़ा होता जीवन से
स्यात सोच यह मन में
सुख का अक्षय कोष कहीं
प्रक्षिप्त पड़ा है वन में ।
जाते ही वह जिसे प्राप्त कर
सब कुछ पा जाएगा
गेह नहीं छोड़ा कि देह धर
फिर न कभी आएगा ।
जनाकीर्ण जग से व्याकुल हो
निकल भागना वन में ;
धर्मराज , है घोर पराजय
नर की जीवन रण में ।
यह निवृति है ग्लानि , पलायन
का यह कुत्सित क्रम है
नि: श्रेयस यह श्रमित , पराजित
विजित बुद्धि का भ्रम है ।
इसे दीखती मुक्ति रोर से ,
श्रवण मूँद लेने में
और दहन से परित्राण - पथ
पीठ फेर देने में ।