Jaati or varg ke bich sambndh
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और वर्ग (कांचा इलैया की पुस्तक "मैं हिन्दू क्यों नहीं हूं" के संदर्भ में) ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि वर्ग एक ठोस वैश्विक यथार्थ है, जाति एक ठोस भारतीय-एशियाई सच्चाई है, जो मनु आधारित वर्ण-व्यवस्था की उपज है. यह वर्ण-व्यवस्था बहुसंख्यक मेहनतकशों के श्रम को हड़पने की और इससे पैदा अतिरिक्त मूल्य और मुनाफे को उच्चवर्णीय अल्पसंख्यक समुदाय की सेवा और ऐशो-आराम के लिए लगाती है. इस प्रकार यह शोषण की संस्कृति पर आधारित व्यवस्था है. जातिवाद के गहरे निहितार्थ हैं और सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक आयाम. यदि सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू को छोड़ दिया जायें, तो आज जातिवाद का स्वरुप शुद्ध ब्राह्मणवाद तक सीमित नहीं रह गया है, जैसा कि इलैया मानते हैं. वर्ग भेद के भी गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक आयाम हैं. आदिम साम्यवाद की व्यवस्था से गुजरने के बाद से ही मानव सभ्यता का चरित्र वर्गीय हो जाता है, लेकिन पूंजीवाद में इसका स्वरुप व शोषण खुलकर सामने आ जाता है. हम एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना करना चाहते हैं, तो यह वर्गहीन समाज में ही संभव है. वर्गहीन समाज के लिए यह जरूरी है कि जाति-आधारित शोषण का भी वह खात्मा करें. इस मायने में वर्गहीन समाज का सामाजिक स्वरुप जातिहीन समाज की ओर बढ़ना ही है. लेकिन इसके उलट, एक जातिहीन समाज क्या वास्तव में एक वर्गहीन समाज होता है? या एक जातिहीन समाज क्या वास्तव में वर्गीय शोषण का खात्मा कर देता है? यूरोप का इतिहास देखे या समकालीन यूरोपीय पूंजीवाद पर नजर डालें, जहां 'वर्ण व्यवस्था और जातिवाद' की ठोस भारतीय-एशियाई संरचना लागू नहीं की जा सकती, वहां भी शोषण पर आधारित दूसरे सामाजिक-सांस्कृतिक कारक काम करते हैं. स्पष्ट है कि जातिहीन समाज वर्गहीन समाज नहीं हैं. इसलिए यह कहना कि भारतीय संदर्भ में जाति ने वर्ग का स्थान ले लिया है, पूरी तरह से सही नहीं है. वास्तव में जातिवाद, भारतीय संदर्भ में शोषण पर आधारित व्यवस्था को बनाये रखने की एक ठोस वर्गीय सच्चाई है. इसीलिए जातिवाद के खिलाफ संघर्ष को शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए वर्गीय संघर्षों से जुड़ना चाहिए. भारतीय संविधान 'अनुसूचित जातियों' की बात करता है. राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधीजी ने इस समुदाय को 'हरिजन' के रूप में चिन्हित किया था. वर्तमान राजनैतिक आंदोलनों में यह समुदाय 'दलित' के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है. कांचा इलैया इन अनुसूचित जातियों को पिछड़ी जातियों के साथ मिलाकर निर्मित इस विशाल समुदाय को 'दलित बहुजन' कहकर संबोधित करते हैं. ऐसी ही सोशल इंजीनियरिंग कांशीराम ने 'बहुजन' के नाम पर की. नाम आप कुछ भी दे दें, वास्तव में लक्षित समुदाय स्पष्ट है, जिसे वर्तमान प्रचलित अर्थों में 'दलित' माना जाता है. इस 'दलित' समुदाय का अस्तित्व 'अनुसूचित जातियों' के बाहर भी है और सामाजिक रूप से कथित पिछड़ों के साथ उनका कोई साम्य भी नहीं है. ये वे दलित हैं, जो आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद राजनैतिक-सांस्कृतिक स्तर पर बहुत पिछड़े हुए तो हैं ही, सामाजिक और आर्थिक शोषण के भी शिकार हैं और समाज श्रेणी में उनका स्थान पिछड़े वर्गों से भी नीचे हैं. कांचा इलैया ने दलितों के सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर जीवन का यथार्थवादी चित्रण किया है. उनका निष्कर्ष एकदम सही है कि दलितों की संस्कृति 'श्रम पर आधारित' संस्कृति है. उनके दैनिक क्रियाकलापों, सामाजिक आचार-विचार-प्रथाओं, विश्वासों, मान्यताओं, रहन-सहन के तरीकों से वे इसे स्थापित करते हैं. दलितों के इस चित्रण से किसी को इंकार नहीं है. लेकिन जब वे इन आधारों को राजनैतिक-आंदोलनात्मक स्तर पर प्रक्षेपित करते हैं, तो बड़े विचित्र निष्कर्ष देते हैं. मसलन, 'भूमिका' में वे कहते हैं --" एक समयावधि में ब्राह्मणवादी जातियां जातिहीन और वर्गहीन हो जायेंगी, तब हम एक समतावादी भारत की स्थापना करेंगे." लेकिन ब्राह्मणवादी जातियों के जातिहीन व वर्गहीन होने की क्या प्रक्रिया होगी, इस पर वे चुप्पी लगा जाते हैं. ऐसा इसलिए कि वे समूचे दलित समुदाय को आर्थिक स्तर पर शोषित वर्ग के समकक्ष मान लेते हैं. क्या केवल ब्राह्मणवादी जातियों को ही जातिहीन और वर्गहीन होने की जरूरत है, दलितों को नहीं? पूरी पुस्तक में वे इस बात का विस्तार से उल्लेख करते हैं कि दलित बहुजनों में भी किस तरह सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर ब्राह्मणवाद ने घुसपैठ कर ली है -- न केवल दैनिक क्रियाकलापों में, बल्कि वैचारिक स्तर पर भी. वास्तव में तो समतावादी भारत की स्थापना की प्रक्रिया में ही जातिवाद और ब्राह्मणवाद से सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर, तो राजनैतिक-आर्थिक स्तर पर वर्गीय शोषण से लड़ने की जरूरत होगी. उन्होंने सविस्तार इसका उल्लेख किया है कि किस प्रकार हिन्दूवाद 'सहयोजन' और 'बहिष्करण' के सिद्धांत पर काम करता है और जातियों को अपने में मिलाने हेतु घुसपैठ करता है. उन्होंने विस्तार से बताया है कि किस प्रकार नवक्षत्रियों के रूप में शूद्र उच्च जातियों का उभार हो रहा है और वे खुद को आक्रामक ढंग से हिन्दुत्व से जोड़ रहे हैं. वे कहते हैं, "कई दलित बहुजनों ने अपना संस्कृतिकरण करने के काफी प्रयास किये हैं. उन्होंने अपने वास्तविक नामों को ब्राह्मणवादी नामों में परिवर्तित कर लिया है. मुथैया मूर्ति बन गये हैं और गोपियाह गोपाल कृष्णन. ...ऐसे अनेकों दलित बहुजन अफसर, राजनेता, अकादमीशियन और डॉक्टर हैं, जिन्होंने हिन्दुओं से भी ज्यादा हिन्दू होने की कोशिश की है." (पेज 63) वास्तव में स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान ही भारत के एक आधुनिक राष्ट्र में तब्दील होने की प्रक्रिया शुरू हुई थी. इसी समय साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष विकसित हुए, राष्ट्रवादी चेतना का
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जाति
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भारतीय सामाजिक संगठन का मूलाधार जाति व्यवस्था ही है। मनुष्य के सामाजिक जीवन के समस्त पहलुओं पर गौर करें तो पता चलता है कि जाति व्यवस्था, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक पहलुओं के साथ एक अनूठी संस्था के रूप में उभरी है। इसने सामाजिक जीवन को समग्र रूप से प्रभावित किया है। प्राचीन वर्ण व्यवस्था से उदभूत जाति व्यवस्था ने भारत में कर्इ प्रकार की सामाजिक बुराइयों को उत्पन्न किया है। पिछले कर्इ सदियों से भारतीय समाज कर्इ जातियों एवं उप जातियों में विभाजित रहा है। इसकी प्रकृति चूंकि पदसोपानिक है, अत: इसने ऊंची जातियों द्वारा निम्न जातियों के शोषण को निरंतर बनाए रखा है। आज जाति-व्यवस्था भारतीय समाज के लिए एक अभिशाप बन चुकी है।
व्यापक दृषिट से जाति व्यवस्था की पदसोपानिक प्रणाली को तीन भिन्न स्तरों में देखा जा सकता है- (क) पहले स्तर में वे लोग आते हैं जो सामाजिक पदसोपान की दृषिट से सबसे ऊपरी स्तर पर हैं और शकित, विशेषाधिकार संपन्न हैं और झूठी शान में रहते हैं; (ख) मध्य स्तर में वे लोग शामिल हैं जो अपनी आजीविका, पेशा और कार्य से जाने जाते हैं। इन्हें सामान्यत: अन्य पिछड़ा वर्ग (व्ठब्) माना जाता है; (ग) निम्न स्तर पर वे लोग हैं जिनकी कोर्इ सामाजिक हस्ती नहीं है और इनके पास संपत्ति एवं आर्थिक शकित भी नहीं होती। समसामयिक राजनीति में इन्हें दलित माना जाता है।
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वर्ग
(Class)
वर्ग की धारणा मुख्यत: आधुनिक पूंजीवादी समाज की माक्र्सवादी व्याख्या से उदभूत हुर्इ है। माक्र्स से पूर्व वर्ग की धारणा उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही थी, न ही समाजवैज्ञानिकों ने इस पर विशेष ध्यान दिया था। किंतु जब माक्र्स ने पूंजीवादी प्रणाली के अंतर्गत वर्ग-विभाजन एवं वर्ग-संघर्ष की निरंन्तरता की बात को स्पष्ट किया तो इसके साथ ही वर्ग की धारणा समाजविज्ञानों में एकाएक महत्वपूर्ण हो गर्इ। समाज वैज्ञानिकों ने जहां सामाजिक स्तरीकरण के संदर्भ में वर्ग को परिभाषित किया, वहां माक्र्सवादियों ने इसे आर्थिक संदर्भ में समझे जाने पर बल दिया।
माक्र्सवादी विश्लेषण के अनुसार वर्ग से आशय लोगों के ऐसे समूह से है जो किसी विशेष उत्पादन प्रणाली (डवकम व चितवकनबजपवद) के अंतर्गत अपनी एक जैसी सिथति के आधार पर पहचाना जाता है, अर्थात या तो वह उत्पादन के साधनों (डमंदे व चितवकनबजपवद) का स्वामी होता है, या अपने जीवन निर्वाह के लिए अपने श्रम पर आश्रित होता है। इसी आधार पर वे या तो राजनीतिक शकित का प्रयोग करते हैं या पराधीन होते हैं। लेनिन ने वर्ग की परिभाषा लोगों के ऐसे बड़े समूह के रूप में की है जो एक दूसरे से निम्न आधार पर अलग होते हैं : (1) ऐतिहासिक रूप से निशिचत सामाजिक उत्पादन प्रणाली के अंतर्गत अधिग्रहित स्थल के आधार पर; (2) उत्पादन के साधनों के साथ उनके संबंध के आधार पर; (3) सामाजिक संगठन में उनकी भूमिका के आधार पर तथा (4) सामाजिक धन को अर्जित किए जाने के तत्व व तरीके के आधार पर (फनवजमक पद ।तवतं ंदक ।ूेंजीपए 2007 रू 49)। इस प्रकार वर्ग की माक्र्सवादी धारणा का प्रतिपादन मुख्यत: आर्थिक संदर्भ में किया जाता है।
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जाति
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भारतीय सामाजिक संगठन का मूलाधार जाति व्यवस्था ही है। मनुष्य के सामाजिक जीवन के समस्त पहलुओं पर गौर करें तो पता चलता है कि जाति व्यवस्था, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक पहलुओं के साथ एक अनूठी संस्था के रूप में उभरी है। इसने सामाजिक जीवन को समग्र रूप से प्रभावित किया है। प्राचीन वर्ण व्यवस्था से उदभूत जाति व्यवस्था ने भारत में कर्इ प्रकार की सामाजिक बुराइयों को उत्पन्न किया है। पिछले कर्इ सदियों से भारतीय समाज कर्इ जातियों एवं उप जातियों में विभाजित रहा है। इसकी प्रकृति चूंकि पदसोपानिक है, अत: इसने ऊंची जातियों द्वारा निम्न जातियों के शोषण को निरंतर बनाए रखा है। आज जाति-व्यवस्था भारतीय समाज के लिए एक अभिशाप बन चुकी है।
व्यापक दृषिट से जाति व्यवस्था की पदसोपानिक प्रणाली को तीन भिन्न स्तरों में देखा जा सकता है- (क) पहले स्तर में वे लोग आते हैं जो सामाजिक पदसोपान की दृषिट से सबसे ऊपरी स्तर पर हैं और शकित, विशेषाधिकार संपन्न हैं और झूठी शान में रहते हैं; (ख) मध्य स्तर में वे लोग शामिल हैं जो अपनी आजीविका, पेशा और कार्य से जाने जाते हैं। इन्हें सामान्यत: अन्य पिछड़ा वर्ग (व्ठब्) माना जाता है; (ग) निम्न स्तर पर वे लोग हैं जिनकी कोर्इ सामाजिक हस्ती नहीं है और इनके पास संपत्ति एवं आर्थिक शकित भी नहीं होती। समसामयिक राजनीति में इन्हें दलित माना जाता है।
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वर्ग
(Class)
वर्ग की धारणा मुख्यत: आधुनिक पूंजीवादी समाज की माक्र्सवादी व्याख्या से उदभूत हुर्इ है। माक्र्स से पूर्व वर्ग की धारणा उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही थी, न ही समाजवैज्ञानिकों ने इस पर विशेष ध्यान दिया था। किंतु जब माक्र्स ने पूंजीवादी प्रणाली के अंतर्गत वर्ग-विभाजन एवं वर्ग-संघर्ष की निरंन्तरता की बात को स्पष्ट किया तो इसके साथ ही वर्ग की धारणा समाजविज्ञानों में एकाएक महत्वपूर्ण हो गर्इ। समाज वैज्ञानिकों ने जहां सामाजिक स्तरीकरण के संदर्भ में वर्ग को परिभाषित किया, वहां माक्र्सवादियों ने इसे आर्थिक संदर्भ में समझे जाने पर बल दिया।
माक्र्सवादी विश्लेषण के अनुसार वर्ग से आशय लोगों के ऐसे समूह से है जो किसी विशेष उत्पादन प्रणाली (डवकम व चितवकनबजपवद) के अंतर्गत अपनी एक जैसी सिथति के आधार पर पहचाना जाता है, अर्थात या तो वह उत्पादन के साधनों (डमंदे व चितवकनबजपवद) का स्वामी होता है, या अपने जीवन निर्वाह के लिए अपने श्रम पर आश्रित होता है। इसी आधार पर वे या तो राजनीतिक शकित का प्रयोग करते हैं या पराधीन होते हैं। लेनिन ने वर्ग की परिभाषा लोगों के ऐसे बड़े समूह के रूप में की है जो एक दूसरे से निम्न आधार पर अलग होते हैं : (1) ऐतिहासिक रूप से निशिचत सामाजिक उत्पादन प्रणाली के अंतर्गत अधिग्रहित स्थल के आधार पर; (2) उत्पादन के साधनों के साथ उनके संबंध के आधार पर; (3) सामाजिक संगठन में उनकी भूमिका के आधार पर तथा (4) सामाजिक धन को अर्जित किए जाने के तत्व व तरीके के आधार पर (फनवजमक पद ।तवतं ंदक ।ूेंजीपए 2007 रू 49)। इस प्रकार वर्ग की माक्र्सवादी धारणा का प्रतिपादन मुख्यत: आर्थिक संदर्भ में किया जाता है।
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