जब रचनात्मक प्रवृति क्षीण होती है तब कौन-सी प्रवृति उसकी जगह ले लेती है?
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साहित्य और समाज में गहरा संबंध है। साहित्य का निर्माण साहित्यकार समाज में रहकर ही करता है। अत: वह समाज की उपेक्षा नहीं कर सकता। जिस साहित्य में समाज की उपेक्षा की जाती है, वह साहित्य समाज में आदर नहीं पाता। साहित्य और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व अविचारणीय है। साहित्य का क्षेत्र अत्यंत विशाल है। यह मनुष्य के विचारों का परिमार्जन करने के साथ-साथ उनका उदात्तीकरण भी प्रस्तुत करता है।
जीवन प्रगतिशीलता का दूसरा नाम है। यह प्रगति उच्च आदशों, महती कल्पनाओं और दृढ़ भावनाओं के द्वारा ही संभव हो सकती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें साहित्य द्वारा उच्चादशों और दृढ़ भावनाओं की उपलब्धि संभव हुई है। मार्टिन लूथर ने पादरी की अनियंत्रित सत्ता का विरोध किया। उसके लेखों से इंग्लैंड में क्रांति हुई और धीरे-धीरे हर जगह पोप का विरोध होता गया। इसी तरह रूसो और वाल्तेयर के लेखों ने परतंत्र फ्रांस और मैजिनी ने परतंत्र इटली के लोगों में क्रांति का स्वर फ्रैंका।
भारत में आजादी से पूर्व राष्ट्र-प्रेम की भावना से युक्त जितना साहित्य लिखा गया, उसने हमारे देश के लोगों में समय-समय पर उत्साह और आशा का संचार किया। माखनलाल चतुर्वेदी की रचना देखिए-
चाह नहीं हैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ।
× × ×
मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ में तुम देना फेंक
मात्रु-भूमि पर शशि चढाने
जिस पथ जावे वीर अनेक।
भारत में उस समय जैसे साहित्य की माँग थी, साहित्यकारों ने वैसा ही साहित्य दिया। हिंदी साहित्य की सृजना युगानुकूल परिस्थितियों का परिणाम है। प्रेमचंद के सभी उपन्यास इस बात के प्रमाण हैं। वास्तव में साहित्य एक ओर समाज का दर्पण होता है। समाज में व्याप्त वैविध्य तथा अनेकताओं की अभिव्यक्ति साहित्य में होती है। और साहित्य द्वारा ही विविधताओं में समन्वय की चेष्टा की जाती है।
तुलसी ने निगमागम पुराणों का सार लेकर अपने युग की ज्वलंत समस्याओं पर विचार किया और राम-नाम को सर्वोपरि माना। अर्थात कवि तत्कालीन जनमानस की क्षुब्धता का वर्णन करने के साथ-साथ उसे कर्तव्य के प्रति सचेत भी करता है। इस प्रकार साहित्य मानव-जीवन का व्यापक प्रतिबिंब है और उसका मार्गदर्शक भी।