jai shakkar prashad ke jeevan ke anubhao unhe atmarkata lakhi ne se re kate hai
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प्रसाद जी का बाल्यकाल सुख के साथ व्यतीत हुआ। इन्होंने बाल्यावस्था में ही अपनी माता के साथ धाराक्षेत्र, ओंकारंश्वर, पुष्कर, उज्जैन और ब्रज आदि तीर्यों की यात्रा की। अमरकण्टक पर्वत श्रेणियों के बीच , नर्मदा में नाव के द्वारा भी इन्होंने यात्रा की। यात्रा से लौटने के पश्चात् प्रसाद जी के जिता का स्वर्गवास हो गया। पिता की मृत्यु के चार वर्ष पश्चात् इनकी माता भी इन्हेंं संसार में अकेला छोड़कर चल बसीं।
प्रसाद जी के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध उनके बड़ भााई शम्भूरत्न जी ने किया। सर्वप्रथम प्रसाद जी का नाम 'क्वीन्स कॉलेज' में लिखवाया गया, लेकिन स्कूल की पढ़ाई में इनका मन न लगा, इसलिए इनकी शिक्षा का बन्ध घर पर ही किया गया। घर पर ही वे योग्य शिक्षकों से अंग्रेजी और संस्कृत का अध्ययन करने लगे। प्रसाद जी को प्रारम्ीा से ही साहित्य के प्रति अनुराग था। वे प्रास: साहित्यिक पुस्तकें पढ़ा करते थे और अवसर मिलने पर कविता भी किया करते थे। पहल तो इनके भाई इनकी काव्य-रचना में बाधा उालते रहे, परन्तु जब इन्होंने देखा कि प्रसाद जी का मन काव्य-रचना में अधिक लगता है, तब इन्होंने इसकी पूरी स्वतंत्रता इन्हें दे दी। प्रसाद जी के हदय को गहरा आघात लगा। इनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गई तथा व्यापार भी समाप्त हो गया। पिता जी ने सम्पत्ति बेच दी। इससे ऋण के भार से इन्हें मुक्ति भी मिल गई, परन्तु इनका जीवन संघर्शों और झंझावातों में ही चक्कर खाता रहा
यद्यपि प्रसाद जी बड़े संयमी थे, किन्तु संघर्ष और चिन्ताओं के कारण इनका स्वास्थ्य खराब हो गया। इन्हें यक्ष्मा रोग ने धर दबोचा। इस रोग से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने पूरी कोशिश की, किन्तु सन्ा्1937 ई. की 15 नम्बर को रोग ने इनके शरीर पर अपना पूर्ण अधिकार कर लिया और वे सदा के लिए इस संसार से विदा हो गए।
कृतियॉं-
कृतियॉं प्रसाद जी प्रमुख है।
काव्य- ऑंसू, कामायनी, चित्राधर, लहर, झरना
कहानी- आँधी, इन्द्रजाल , छाया, प्रतिध्वनि (प्रसाद जी अंतिम काहनी 'सालवती' है।)
उपन्यास- तितली, कंकाल इरावती
नाटक- सज्जन, कल्याणी-परिणय, चन्द्रगुप्त, सकन्दगुप्त, अजातशुत्र, प्रायाश्चित्त, जनमेजय का नाग यज्ञ, विशाख, ध्रुवस्वामिनी
निबन्ध- काव्यकला एवं अन्य निबन्ध
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