जनाबाई लक्ष कोणाच्या चरणापाशी लागाली आहे ।
Answers
Answer:
इस समृद्ध पृष्ठभूमि पर जनाबाई का नाम एक उपेक्षित किंतु बहुगुण संपन्न संत कवयित्री के रुप में लेना होगा। जनाबाई महाराष्ट्र की एकमात्र ऐसी संत कवयित्री हैं जिनकी बानी में स्त्री-मन की अभिव्यक्ति होती है। वे अपने नितांत अकेलेपन में भी न जोगन होने की बात करती हैं न ही पुरुष संतों की देखादेखी उधार के भावों को अभिव्यक्त करती हैं। आत्मानुभवों की विशुद्ध अनुभूति जनाबाई की कविता की विशेषता रही। बल्कि जिस समय पुरुष संतों का बोलबाला था, उस समय जनाबाई अपने स्त्रीत्व पर गर्व करती हैं और 'स्त्री जन्म म्हणुनिया न व्हावे उदास'की सीख देती हैं। इसी स्त्रीत्व के माध्यम से वात्सल्य से लेकर श्रृंगार तक की कई अनुभूतियों को जीवंतता प्रदान करती हैं। जनाबाई के स्वर में ऐसे-ऐसे तत्व निहित हैं जो महाराष्ट्र तो क्या, समग्र भारतीय संत-साहित्य में दुर्लभ हैं।
महाराष्ट्र के मराठवाड़ा संभाग के गंगाखेड़ में करुंड व दमा नामक विट्ठलभक्त दंपति की बेटी जनाबाई बाल्यावस्था से मातृछत्र से विहीन हो गई। बेटी के लालन पालन में स्वयं को असमर्थ पाते हुए पिता दमा ने उसे संत नामदेव के पिता दमाशेटी को सौंप दिया। मातृ-पितृविहीन अनाथ जनाबाई संत नामदेव के घर दासी के रुप में रहने लगीं। जनाबाई नामदेव के प्रति इतनी कृतज्ञ थीं कि वे अंत तक स्वयं को 'नाम्याची जनी'अर्थात 'नामदेव की दासी जनाबाई'कहलवाती रहीं। उनके प्रत्येक पद में उन्होंने 'नामदेव की दासी जनी'की छाप लगा रखी है। उनके आत्मकथन में भी वे आद्योपांत नामदेव के प्रति अपनी श्रध्दा प्रकट करती हैं और जन्म जन्मांतर तक नामदेव की दासी बनी रहने की इच्छा व्यक्त करती हैं। (यह बात अलग है कि नामदेव के आत्मकथन में जनाबाई का बहुत ही कम उल्लेख है) संत नामदेव स्वयं एक महान संत थे लेकिन उन्होंने जनाबाई को अपने आत्मकथन में महत्व देना आवश्यक नहीं समझा। जनाबाई को संभवतः इस उपेक्षा की आदत थी। जनाबाई ने चहुं ओर से उपेक्षा ही सही - वे स्त्री थीं, दासी थीं, अनाथ थीं और जाति से शूद्र थीं। इस पृष्ठभूमि पर तत्कालीन समाज ने उनकी कितनी उपेक्षा की होगी, इस बात का अनुमान लगाना भी क्लेश पहुँचाता है। नामदेव के भरेपूरे परिवार की हर संभव सेवा करने के बावजूद होनेवाली उपेक्षा जनाबाई में गहरा वंचितत्व, अनाथपन का एक भाव भर देती है। यह उनके पदों में कुछ यूँ उतरता है -