Science, asked by ssugreevrajak, 4 months ago

जड़ों के रूपांतरण को चित्र सहित समझाइये?​

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Answered by mrsanjusingh78
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Answer:

(a) कंदिल मूल (tuberous roots) : कुछ पौधों , जैसे शकरकन्द में प्रसारी तने की पर्वसंधियों से जड़ें उत्पन्न होती है , जो फूलकर अनियमित और कंदील संरचनाओं में रूपान्तरित हो जाती है। ... यहाँ अपस्थानिक जड़ों के पतले सिर फूलकर माला के एक मनके अथवा मणि की आकृति ग्रहण कर लेते है। अत: इस प्रकार की जड़ों को मूलांग मूल कहा जाता है।

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Answered by shivangiroy27
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Answer:

modification of roots) : यहाँ रूपांतरण से हमारा तात्पर्य पौधे के किसी भाग अथवा अंग में सामान्य कार्य के अतिरिक्त , कोई और विशिष्ट कार्य को करने के लिए , इसमें उत्पन्न आकारिकीय परिवर्तन से है। ये आकारिकी परिवर्तन , अंग विशेष की आकृति अथवा संरचना में हो सकते है। अत: विभिन्न पौधों की जड़ों में भी कुछ विशेष कार्यों के सम्पादन के लिए विविध प्रकार की रुपान्तरण संरचनाएँ पायी जाती है। यहाँ कुछ ऐसी जड़ों का संक्षेप में विवरण दिया गया है जिनमें विशिष्ट कार्यो के लिए रुपान्तरण होता है , जैसे

खाद्य संचयन हेतु रूपान्तरणसूक्ष्म जीवों से पारस्परिक क्रियाश्वसन हेतु रुपान्तरणयान्त्रिक कार्यो हेतु रुपान्तरणप्रजनन हेतु रूपान्तरणआर्द्रता ग्रहण करने हेतु रुपान्तरणस्वांगीकरण हेतु रूपान्तरण आदि।

संचयी मूल (storage roots) : अनेक पादपों की प्राथमिक मूल (मूसला मूल और अपस्थानिक मूल) कार्बोहाइड्रेट के रूप में खाद्य पदार्थों का संचयन भी करती है , इन्हें संचयी मूल या मांसल मूल कहते है।

(i) संचयी अथवा माँसल मूसला मूल (storage tap root) : इस प्रकार की जड़ें भोज्य पदार्थो के संचय द्वारा मोटी और मांसल हो जाती है। ये रूपांतरण केवल प्राथमिकता मूसला जड़ों में ही होता है , जबकि द्वितीयक और तृतीयक जड़ें पतली और रेशेदार ही बनी रहती है।

शंकुरूप (conical) : इस प्रकार की रूपांतरित मांसल जड़ आधारीय भाग पर (अर्थात भूमि की सतह के पास) तो चौड़ी तथा मोटी होती है , जबकि अग्र भाग अथवा अंतिम सिरे पर क्रमशः पतली तथा संकरी होती हुई , अन्त में धागे के समान हो जाती है। इस प्रकार सम्पूर्ण मूलीय संरचना शंकु के समान दिखाई पड़ती है , जैसे , गाजर में। शंकुरुपी रूपान्तरित जड़ का आधारीय मांसल भाग बीजपत्राधार से व्युत्पन्न होता है।

(b) तर्कुरूपी (fusiform) : इस प्रकार की मांसल रूपांतरित जड़ की आकृति सूत के तकुए अथवा तर्कु के समान होती है। ये जड़ें मध्य भाग में फूली हुई और ऊपर और नीचे की तरफ क्रमशः पतली होती हुई चली जाती है जैसे मूली में। तर्कुरूपी जड़ में आधारीय भाग फूले हुए बीजपत्राधार से व्युत्पन्न होता है ,

(c) कुम्भी रूप (napiform) : ये मांसल जड़ें लगभग गोलाकार अथवा घड़े (मटकी) के समान अथवा लट्टू की जैसी होती है। इनका ऊपरी सिरा मटकी के समान दिखाई देता है और अंतिम सिरा एकदम अथवा अचानक पतला और धागे के समान हो जाता है जैसे शलजम और चुकंदर में। (d) कंदिल अथवा गांठदार (tuberous) : ये भी मांसल रूपान्तरित मूसला जड़ें होती है , जिनकी कोई निश्चित और नियमित आकृति नहीं होती जैसे गुलब्बास। कुछ पौधों जैसे – इकाइनोसिस्टस में कंदील जड़ें पालिवत होती है और इनका भार 20 किलोग्राम अथवा इससे भी अधिक हो सकता है।अपस्थानिक मूल (fleshy adventitious roots) : कुछ पौधों में अपस्थानिक जड़ें भी भोज्य पदार्थो का संचय करके मोटी और माँसल हो जाती है। ये फूलकर एक विशेष और विचित्र आकृति ग्रहण कर लेती है। मांसल और अपस्थानिक जड़ों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित प्रकार है –

(a) कंदिल मूल (tuberous roots) : कुछ पौधों , जैसे शकरकन्द में प्रसारी तने की पर्वसंधियों से जड़ें उत्पन्न होती है , जो फूलकर अनियमित और कंदील संरचनाओं में रूपान्तरित हो जाती है। इन संरचनाओं में प्रचुर मात्रा में भोज्य पदार्थ संचित रहते है इसलिए इनको कंद मूल भी कहते है , शकरकंद की इन कंदिल जड़ों से नए पौधों का विकास हो सकता है अत: ऐसी जड़ों को प्रजनन मूल भी कहा जाता है।

(b) कंद गुच्छ मूल अथवा पूलवत मूल (fasciculated roots) : कुछ पौधों जैसे डहेलिया और शतावरी में , उनकी मांसल अपस्थानिक जड़ें गुच्छों अथवा पूलों के रूप में एकत्र पायी जाती है , इनको कंद गुच्छ अथवा गुच्छावत जड़ें कहा जाता है। इस प्रकार ये जड़ें पौधों में एक ही बिंदु से उत्पन्न होती है और इनमें भोज्य पदार्थ भी अत्यधिक मात्रा में संचित रहती है। शतावरी अथवा एस्पेरेगस में तो ये मूलगुच्छ जो फूले हुए पूलों के रूप में होती है , थोड़ी थोड़ी दूरी या अंतराल पर उत्पन्न होती है।

(c) मूलांग मूल (nodulose roots) : इस प्रकार की जड़ें भी कुछ एकबीजपत्री पौधों में जैसे – आमी हल्दी में पायी जाती है। यहाँ अपस्थानिक जड़ों के पतले सिर फूलकर माला के एक मनके अथवा मणि की आकृति ग्रहण कर लेते है। अत: इस प्रकार की जड़ों को मूलांग मूल कहा जाता है।

(d) मणिरूप मूल (moniliform or beaded roots) : कुछ पौधों जैसे – करेला और पोर्चूलाका में अपस्थानिक जड़ें थोड़े थोड़े अंतराल पर फूल कर माला की मणियों के समान आकृति ग्रहण कर लेते है और सम्पूर्ण मूल संरचना एक माला के समान दिखाई देती है।

(e) वलियत मूल (annulated roots) : कुछ पौधों जैसे सिफेलिस में जड़ों की संरचना में एक के ऊपर एक असंख्य फूली हुई चक्रिकाएं व्यवस्थित दिखाई देती है। इस प्रकार इन पौधों में जड़ों की संरचना एक वलयित आकृति प्रदर्शित करती है।

संचयी मूलों में कैम्बियम सक्रियता (cambium activity in storage roots)

कुछ पौधों जैसे – मूली , शलजम (ब्रैसीकेसी ) , शकरकंद (कन्वोलबुलेसी) , चुकंदर (चीनोपोडीएसी ) और गाजर (एपीएसी) आदि की भूमिगत जड़ें भोज्य पदार्थो के संचय के लिए फूलकर रूपांतरित हो जाती है। इनमें द्वितीयक वृद्धि के परिणामस्वरूप जाइलम और फ्लोयम तो कम मात्रा में बनते है लेकिन भोज्य पदार्थो के संचय के लिए मृदुतकीय संचयी कोशिकाएँ काफी अधिक मात्रा में बनती है। इनमें प्राथमिक कैम्बियम थोड़े समय के लिए ही कार्यशील रहता है लेकिन इसके बाद जब द्वितीयक वृद्धि चालू होती है तो प्रोटोजाइलम के बाहर परिरंभ और परिरंभ के पास मृदुतकी संयोजी ऊतक के द्वारा द्वितीयक कैम्बियम का निर्माण होता है जिससे द्वितीयक संवहन ऊतक कम मात्रा में और संचयी मृदुतक अधिक मात्रा में बनते है। इस प्रकार की वृद्धि को असंगत द्वितीयक वृद्धि भी कहते है।

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