Hindi, asked by ankit21kaushal, 1 year ago

jivandayni nadiyon ki swatchata ke liye nibhand

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Answered by Anonymous
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Hey!!!!....


Ur Answer Is ##


सब जानते हैं कि नदियों के किनारे ही अनेक मानव सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ है। नदी तमाम मानव संस्कृतियों की जननी है। प्रकृति की गोद में रहने वाले हमारे पुरखे नदी-जल की अहमियत समझते थे। निश्चित ही यही कारण रहा होगा कि उन्होंने नदियों की महिमा में ग्रंथों तक की रचना कर दी और अनेक ग्रंथों-पुराणों में नदियों की महिमा का बखान कर दिया। भारत के महान पूर्वजों ने नदियों को अपनी मां और देवी स्वरूपा बताया है। नदियों के बिना मनुष्य का जीवन संभव नहीं है, इस सत्य को वे भली-भांति जानते थे। इसीलिए उन्होंने कई त्योहारों और मेलों की रचना ऐसी की है कि समय-समय पर समस्त भारतवासी नदी के महत्व को समझ सकें। नदियों से खुद को जोड़ सकें। नदियों के संरक्षण के लिए चिंतन कर सकें।

हर तीन साल में देश के चार अलग-अलग संगम स्थलों पर लगने वाला कुंभ भी इसी चिंतन परंपरा का सबसे बड़ा उदाहरण है। ‘नद्द: रक्षति रक्षित:’ (नदी संरक्षण) विषय पर आहूत ‘मीडिया चौपाल’ को ऐसे ही उदाहरण की श्रेणी में रखा जा सकता है। नदी संरक्षण के लिए वेब संचालकों, ब्लॉगर्स एवं जन-संचारकों के जुटान का स्वागत किया जाना चाहिए। ‘विकास की बात विज्ञान के साथ: नये मीडिया की भूमिका’ और ‘जन-जन के लिए विज्ञान और जन-जन के लिए मीडिया’ जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर पिछले दो वर्षों में मीडिया चौपाल का सफल आयोजन भोपाल में हो चुका है। तीसरी मीडिया चौपाल दिल्ली में भारतीय जनसंचार संस्थान के परिसर में जमेगी। भारत की लगभग सभी नदियों और उससे जुड़े जीवों (मनुष्य भी शामिल) के सम्मुख जब जीवन का संकट खड़ा हो तब संवाद के नए माध्यम ‘सोशल मीडिया’ की पहुंच, प्रयोग और प्रभाव का नदी संरक्षण के लिए उपयोग करने पर मंथन करना अपने आप में महत्वपूर्ण और आवश्यक पहल है।

नदी संरक्षण में सोशल मीडिया की कितनी अहम भूमिका हो सकती है, इसे सब समझते हैं। सोशल मीडिया की ताकत और प्रभाव की अनदेखी शायद ही कोई करे। पिछले चार-पांच वर्षों में सोशल मीडिया का प्रभाव जोरदार तरीके से बढ़ा है। सस्ते स्मार्टफोन की बाढ़ ने तो ज्यादातर लोगों को सोशल मीडिया का सिपाही बना दिया है। यह आम आदमी का अपना अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया है। इसका उपयोग सहज है, इसलिए यह मीडिया अधिक सोशल हो गया है। दोतरफा संवाद, बिना रोक-टोक के अपनी बात कहने की आजादी और सहज उपलब्धता के कारण आम आदमी ने इसे हाथों-हाथ लिया है। स्वयं को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ आदमी यहां सार्थक संवाद भी कर रहा है।

पिछली सरकार को अपने कई फैसले इसलिए वापस लेने पड़े क्योंकि सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ जमकर माहौल बनाया गया था। लोक कल्याण के लिए बनाई गईं कमजोर नीतियों पर जोरदार बहस आयोजित हुईं। सोशल मीडिया का ही असर है कि समाज में फिर से राजनीतिक चेतना बढ़ी है। राजनीति को कीचड़ की संज्ञा देकर इससे बचने वाले युवा भी सोशल मीडिया के माध्यम से भारतीय राजनीति का स्वास्थ्य सुधारने का प्रयास कर रहे हैं। क्रांति की अलख जगा रहे हैं। भारत के संदर्भ में देखें तो अन्ना हजारे के आंदोलन को खाद-पानी सोशल मीडिया ने ही दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसका सबसे बेहतर उपयोग कर इसकी ताकत और लोकप्रियता को जग-जाहिर कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी की अभूतपूर्व जीत और कांग्रेस की ऐतिहासिक हार की कहानी कहीं न कहीं सोशल मीडिया पर ही लिखी जा रही थी।

‘तहलका’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक पेशेवर आंदोलनकारी भी सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। यानी इस प्रभावशाली माध्यम का उपयोग हर कोई कर रहा है। राजनेता से लेकर अभिनेता और तमाम चर्चित शख्सियतें रोज ट्विटर, फेसबुक और ब्लॉग सहित अन्य सोशल मंचों से जुड़ रहे हैं। इन सबके बीच पर्यावरण से जुड़े लोग ही कहीं पीछे खड़े दिखते हैं। नदी और मानव जाति का कल बचाने के लिए उन्हें और हमें भी सोशल मीडिया पर सक्रियता बढ़ानी होगी। सोशल मीडिया के माध्यम से जन जागरण करना होगा। आखिर नदी बचाने के लिए हमें अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को स्पष्टतौर पर समझना ही होगा। सामाजिक जिम्मेदारी तय करने के लिए संचार के सामाजिक माध्यम से अच्छा मंच कहां हो सकता है। बस, जरूरत है इस दिशा में सार्थक और सामूहिक प्रयास करने की। मीडिया चौपाल के प्रयास से यह संभव हो सके तो कितना सुखद होगा।



#DudE :-)
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