कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित क्यों थे? यूरोप और भारत से एक-एक उदाहरण लेकर समझाएँ।
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उत्तर :
कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित इसलिए थे क्योंकि मुद्रण तकनीकी के अविष्कार से किताबों की पहुंच दिन प्रतिदिन सुलभ होती गई । इससे ज्ञान का प्रसार हुआ और तर्क को बढ़ावा मिला। परंतु कुछ लोग ऐसे भी थे जो किताबों के सुलभ हो जाने से चिंतित थे । जिन लोगों ने छपी हुई किताबों का स्वागत किया उनके मन में भी कई प्रकार की शंकाएं थी।
चिंतित लोगों में मुख्य रूप से धर्मगुरु, सम्राट था कुछ लेखक शामिल थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि छपे हुए शब्दों का लोगों के दिलों दिमाग पर क्या असर पड़ेगा। उनका मानना था कि यदि पुस्तकों पर कोई नियंत्रण नहीं होगा तो लोग अधर्मी और देशद्रोही बन जाएंगे। ऐसे में मूल्यवान साहित्य की सत्ता ही नष्ट हो जाएगी।
यूरोप से उदाहरण :
यूरोप में कैथोलिक चर्च लोगों में चर्च विरोधी भावनाओं के पनपने से अधिक चिंतित था। उसे अपनी सत्ता खतरे में दिखाई देने लगी थी। यही कारण था कि उसने मेनिकियो नामक एक ग़रीब किसान को चर्च विरोधी विचार व्यक्त करने पर मृत्यु दंड दे दिया था। प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलीलियो पर भी इसी कारण एक मुकदमा चलाया गया था।
भारत से उदाहरण :
भारत की अंग्रेजी सरकार मुद्रण संस्कृति के प्रसार से चिंतित थी क्योंकि इससे लोगों में राष्ट्रवादी भावना मजबूत होती जा रही थी। उदाहरण के लिए 1907 में जब पंजाब के क्रांतिकारियों को काला पानी भेजा गया था तो बाल गंगाधर तिलक ने अपने केसरी नामक पत्र में उनके प्रति गहरी सहानुभूति जताई। जिसके परिणामस्वरूप 1908 में उन्हें हिरासत में ले लिया गया।
आशा है कि यह उत्तर आपकी मदद करेगा।।।।ं
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(क) महिलाएँ
(ख) गरीब जनता
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Explanation:
इसके लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द सोशियोलॉजी लेटिन भाषा के सोसस तथा ग्रीक भाषा के लोगस दो शब्दों से मिलकर बना है जिनका अर्थ क्रमशः समाज का विज्ञान है। इस प्रकार सोशियोलॉजी शब्द का अर्थ भी समाज का विज्ञान होता है। परंतु समाज के बारे में समाजशास्त्रियों के भिन्न – भिन्न मत है इसलिए समाजशास्त्र को भी उन्होंने भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है।
अति प्राचीन काल से समाज शब्द का प्रयोग मनुष्य के समूह विशेष के लिए होता आ रहा है। जैसे भारतीय समाज , ब्राह्मण समाज , वैश्य समाज , जैन समाज , शिक्षित समाज , धनी समाज , आदि। समाज के इस व्यवहारिक पक्ष का अध्यन सभ्यता के लिए विकास के साथ-साथ प्रारंभ हो गया था। हमारे यहां के आदि ग्रंथ वेदों में मनुष्य के सामाजिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
इनमें पति के पत्नी के प्रति पत्नी के पति के प्रति , माता – पिता के पुत्र के प्रति , पुत्र के माता – पिता के प्रति , गुरु के शिष्य के प्रति , शिष्य के गुरु के प्रति , समाज में एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के प्रति , राजा का प्रजा के प्रति और प्रजा का राजा के प्रति कर्तव्यों की व्याख्या की गई है।
मनु द्वारा विरचित मनूस्मृति में कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था और उसके महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है और व्यक्ति तथा व्यक्ति , व्यक्ति तथा समाज और व्यक्ति तथा राज्य सभी के एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों को निश्चित किया गया है। भारतीय समाज को व्यवस्थित करने में इसका बड़ा योगदान रहा है इसे भारतीय समाजशास्त्र का आदि ग्रंथ माना जा सकता है।