कोरोना महामारी का देश दुनिया पर होनेवाला प्रभाव स्पीछ्
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मौजूदा पारंपरिक नियामक और प्रमाणित करने वाली संस्थाओं से इतर, उचित अकादेमिक, अनुसंधान और नई खोज के केंद्र ही आज स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में नए-नए आविष्कार कर रहे हैं. अब उन्हें नई खोज के नियमितीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा बनाए जाने की ज़रूरत है।
नया कोरोना वायरस पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था की बत्तियां बुझा रहा है. स्वास्थ्य का ये वैश्विक संकट अब पूरी दुनिया के लिए आर्थिक क़यामत का रूप ले चुका है. कोविड-19 महामारी के कारण दुनिया पर गंभीर और दूरगामी आर्थिक दुष्प्रभाव पड़ने क़रीब-क़रीब तय हैं. इस समय दुनिया की अधिकतर अर्थव्यवस्थाएं अभी महामारी की इस सुनामी से सदमे में हैं. माना जा रहा है कि इस महामारी से पैदा हुआ आर्थिक संकट 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट या फिर बीसवीं सदी की शुरुआत में आई महान आर्थिक मंदी से भी बुरा साबित हो सकता है. तमाम क्षेत्रों में से स्वास्थ्य का सेक्टर ऐसा है, जहां पर इस महामारी के बुरे प्रभाव का अंदाज़ा पहले से ही लगाया जा सकता है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश, जिन्होंने किसी महामारी की आशंका में पहले अपनी तैयारियों का अभ्यास या ड्रिल किया था, उन्हें भी या तो कोविड-19 से इतनी भारी तबाही का अंदाज़ा नहीं था. या फिर, उन्होंने स्वास्थ्य के किसी संकट से निपटने के लिए किए गए अभ्यासों से कोई सबक़ नहीं लिया था. इसीलिए, जब एक बार महामारी का प्रकोप फैलने लगा, तो इन देशों में जिन चीज़ों की शुरुआत में ही कमी होने लगी थी, वो थी आईसीयू के बिस्तर, वेंटिलेटर और मरीज़ों की देखभाल करने वालों के लिए निजी सुरक्षा के उपकरण. सरकार द्वारा प्रायोजित स्वास्थ्य व्यवस्था वाले देशों में ही इस वायरस से निपटने के प्रयास कारगर होते दिखे. सिंगापुर, ताइवान, न्यूज़ीलैंड और जापान जैसे कुछ गिने चुने देश ही थे, जो इस महामारी से मची तबाही से ख़ुद को बचाने में सफल हो सके. इन देशों के पास इस बात की सुविधा थी, इनके सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध थीं. ऐसे में जब वायरस का संक्रमण फैलने लगा, तो इन देशों के नागरिकों के पास या तो मुफ़्त में या फिर सरकार की मदद से बेहद कम पैसों में इसका टेस्ट कराने की सुविधा हासिल थी. आर्थिक संकट के दौरान, स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने का ख़र्च बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है।