Hindi, asked by aditianant5, 4 days ago

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Answered by sharvariumate
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भारतीय क्रिकेट का सरताज : सचिन तेंदुलकर

पिछले पंद्रह सालों से भारत के लोग जिन-जिन हस्तियों के दीवाने हैं-उनमें एक गौरवशाली नाम है-सचिन तेंदुलकर। जैसे अमिताभ का अभिनय में मुकाबला नहीं, वैसे सचिन का क्रिकेट में कोई सानी नहीं। संसार-भर में एक यही खिलाड़ी है जिसने टेस्ट-क्रिकेट के साथ-साथ वन-डे क्रिकेट में भी सर्वाधिक शतक बनाए हैं। अभी उसके क्रिकेट जीवन के कई वर्ष और बाकी हैं। यदि आगे आने वाला समय भी ऐसा ही गौरवशाली रहा तो उनके रिकार्ड को तोड़ने के लिए भगवान को फिर से नया अवतार लेना पड़ेगा। इसीलिए कुछ क्रिकेट-प्रेमी सचिन को क्रिकेट का भगवान तक कहते हैं। उसके प्रशंसकों ने हनुमान-चालीसा की तर्ज पर सचिन-चालीसा भी लिख दी है।

मुंबई में बांद्रा-स्थित हाउसिंग सोसाइटी में रहने वाला सचिन इतनी ऊँचाइयों पर पहुँचने पर भी मासूम और विनयी है। अहंकार तो उसे छू तक नहीं गया है। अब भी उसे अपने बचपन के दोस्तों के साथ वैसा ही लगाव है जैसा पहले था। सचिन अपने परिवार के साथ बिताए हुए क्षणों को सर्वाधिक प्रिय क्षण मानता है। इतना व्यस्त होने पर भी उसे अपने पुत्र का टिफिन स्कूल पहुँचाना अच्छा लगता है।

सचिन ने केवल 15 वर्ष की आयु में पाकिस्तान की धरती पर अपने क्रिकेट-जीवन का पहला शतक जमाया था जो अपने-आप में एक रिकार्ड है। उसके बाद एक-पर-एक रिकार्ड बनते चले गए। अभी वह 21 वर्ष का भी नहीं हुआ था कि उसने टेस्ट क्रिकेट में 7 शतक ठोक दिए थे। उन्हें खेलता देखकर भारतीय लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर कहते थे-सचिन मेरा ही प्रतिरूप है।

2.ग्रामीण संसाधनों के बल पर आर्थिक स्वतंत्रता

समाज में सकारात्मक बदलाव के तीन ही मुख्य सूचक होते हैं। आचरण, आर्थिकी व संगठनात्मक पहल। इन तीनों से ही समाज को असली बल मिलता है और प्रगति के रास्ते भी तैयार होते हैं। इन सबको प्रभाव में लाने के लिए सामूहिक पहल ही सही दिशा दे सकती है।

हेस्को (हिमालयन एन्वायर्नमेंटल स्टडीज कन्जर्वेशन ऑर्गेनाइजेशन) ने अपनी कार्यशैली में ये तीन मुद्दे केंद्र में रखकर सामाजिक यात्रा शुरू की। कुछ बातें स्पष्ट रूप से तय थीं कि किसी भी प्रयोग को स्थायी परिणाम तक पहुँचाना है तो स्थानीय भागीदारी, संसाधन और बाज़ार की सही समझ के बिना यह संभव नहीं होगा। वजह यह है कि बेहतर आर्थिकी गाँव समाज की पहली चिंता है और उसका स्थायी हल स्थानीय उत्पादों तथा संसाधनों से ही संभव है। सही, सरल व सस्ती तकनीक आर्थिक क्रांति का सबसे बड़ा माध्यम है। स्थानीय उत्पादों पर आधारित ब्रांडिंग गाँवों के उत्पादों पर उनका एकाधिकार भी तय कर सकती है और ये उत्पाद गुणवत्ता व पोषकता के लिए हमेशा पहचान बना सकते हैं, इसलिए बाज़ार के अवसर भी बढ़ जाते हैं।

गाँवों की बदलती आर्थिकी की दो बड़ी आवश्यकताएँ होती हैं। संगठनात्मक पहल, बराबरी व साझेदारी तय करती है। किसी • भी आर्थिक-सामाजिक पहल की बहुत-सी चुनौतियाँ संगठन के दम पर निपटाई जाती हैं। सामूहिक सामाजिक पहलुओं का अपना एक चरित्र व आचरण बन जाता है, जो आंदोलन को भटकने नहीं देता। हेस्को की इसी शैली ने हिमालय के घराटों में पनबिजली व पन उद्योगों की बड़ी क्रांति पैदा की। जहाँ ये घराट (पन चक्कियाँ) मृतप्राय हो गई थीं, अब एक बड़े आंदोलन के रूप में आटा पिसाई, धान कुटाई ही नहीं बल्कि पनबिजली पैदा कर घराटी नए सम्मान के साथ समाज में जगह बना चुके हैं।

इनके संगठन और आचरण ने मिलकर केंद्र व राज्यों में राष्ट्रीय घराट योजना के लिए सरकारों को बाध्य कर दिया। एक घराट की मासिक आय पहले 1,000 रुपए तक थी, आज वह 8,000 से 10,000 रुपए कमाता है। आज हज़ारों घराट नए अवतार में स्थानीय बिजली व डीजल चक्कियों को सीधे टक्कर दे रहे हैं। इन्होंने बाज़ार में अपना घराट आटा उतार दिया है, जो ज़्यादा पौष्टिक है।

फल-अनाज उत्पाद गाँवों को बहुत देकर नहीं जाते। विडंबना यह है कि उत्पादक या उपभोक्ता की बजाय सारा लाभ इनके बाजार या प्रसंस्करण में जुटा बीच का वर्ग ले जाता है। 1990 के दौरान हेस्को ने स्थानीय फल-फूलों को बेहतर मूल्य देने के लिए पहली प्रसंस्करण इकाई डाली और जैम-जेली जूस बनाने की शुरुआत की। देखते-देखते युवाओं-महिलाओं ने ऐसी इकाइयाँ डालनी शुरू की और आज उत्तराखंड में सैकड़ों प्रोसेसिंग इकाइयाँ काम कर रही हैं। एक-दूसरे के उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए संगठन भी खड़े कर दिए।

उत्तराखंड फ्रूट प्रोसेसिंग एसोसिएशन इसी का परिणाम है। ये जहाँ, अपने आपसी मुद्दों के प्रति सजग रहते हैं वहीं, सरकार को भी टोक-टोक कर रास्ता दिखाने की कोशिश करते हैं। ऐसे बहुत से प्रयोगों ने आज बड़ी जगह बना ली है। उत्तराखंड में मिस्त्री, लोहार, कारपेंटर आज नए विज्ञान व तकनीक के सहारे बेहतर आय कमाने लगे हैं। पहले पत्थरों का काम, स्थानीय कृषि उपकरण व कुर्सी-मेज के काम शहरों के नए उत्पादनों के आगे फीके पड़ जाते थे। आज ये नए विज्ञान व तकनीक से लैस हैं। इनके संगठन ने इन्हें अपने हकों के लिए लड़ना भी सिखाया है।

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