कैसे मुसलमानों के कई प्रकार हैं जब यह मुहर्रम का जश्न मना करने के लिए आता है?
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ऐसा माना जाता है कि सन् 61 हिजरी के दौरान कर्बला (जो अब इराक में है) यजीद इस्लाम का बादशाह बनना चाहता था। इसके लिए उसने आवाम में खौफ फैलाना शुरू कर दिया और लोगों को गुलाम बनाने लगा। लेकिन इमाम हुसैन और उनके भाईयों ने उसके आगे घुटने नहीं टेके और जंग में जमकर उससे मुकाबला किया। बताया जाता है कि इमाम हुसैन अपने बीवी बच्चों को हिफाजत देने के लिए मदीना से इराक की तरफ जा रहे थे, तभी यजीद की सेना ने उन पर हमला किया। इमाम हुसैन को मिलाकर उनके साथियों की संख्या केवल 72 थी जबकि यजीद की सेना में हजारों सैनिक थे। लेकिन इमाम हुसैन और उनके साथियों ने डटकर उनका मुकाबला किया। यह जंग कई दिनों तक चली और भूखे-प्यासे लड़ रहे इमाम के साथी एक-एक कर कुर्बान हो गए। हालांकि इमाम हुसैन आखिरी तक अकेले लड़ते रहे और मुहर्रम के दसवें दिन जब वो नमाज अदा कर रहे थे, तब दुश्मनों से उन्हें मार दिया। पूरे हौसलों के साथ लड़ने वाले इमाम मरकर भी जीत के हकदार हुए और शहीद कहलाए। जबकि जीतकर भी ये लड़ाई यजीद के लिए एक बड़ी हार थी। उस दिन से आज तक मुहर्रम के महीने को शहादत के रूप में याद किया जाता है।
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