Hindi, asked by abid63712, 1 month ago

क्षण क्षण में परिवर्तित होती है ​

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Answered by jyosiljaykrishnan
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परिवर्तन प्रकृति की शाश्वत प्रक्रिया है। क्षण-क्षण में क्षीण होने वाले संसार के सभी संग्रहों का अंत क्षय है। जिसका जन्म होता है उसका मरण भी निश्चित होता है। जन्म और मृत्यु-दो बिंदुओं के बीच ही जीवन-रेखा खिंचती है। जीवन का आदि जन्म है और अंत उसका मरण है। जीवधारी का मरण उसके जीवन का विश्राम है। जिस प्रकार प्राणी दिन भर श्रम करने के बाद रात्रि में विश्राम करना चाहता है, उसी प्रकार जीवन भी थक जाने के बाद विश्राम करना चाहता है। उसका विश्राम करना ही चिरनिद्रा है। दूसरे शब्दों में जैसे कोई पुराने भवन को छोड़कर दूसरे भवन में पहुंचता है तो उसका यह परिवर्तित भवन नया हो जाता है। वस्तुत: प्राणी का शरीर ही परिवर्तित होता है, किंतु शरीर के भीतर रहने वाला सूक्ष्म शरीर यानी आत्मा शाश्वत और अपरिवर्तनीय है।

जीवन और मरण के अंतराल में प्राणी का बचपन परिवर्तित होकर यौवन का रूप ले लेता है और युवावस्था भी परिवर्तित होकर वृद्धावस्था का रूप ले लेती है। अंत में वृद्धावस्था के पश्चात परिवर्तन होने पर प्राणी फिर नया जीवन प्राप्त करता है। जब परिवर्तन सुनिश्चित है, तो प्रसन्नता के साथ इस परिवर्तन को 'अनंत' की गोद में जाने-जैसा अनुभव करना चाहिए। वस्तुत: यही परिवर्तन वह मूल्यवान चाभी है, जिससे अमरत्व के भवन का द्वार खुलता है। यहीं से ही सत्य को जान सकना संभव होता है। मरणधर्मा प्राणी को मानव-देह प्रभु की कृपा से ही प्राप्त होती है, परंतु प्राणी अज्ञानतावश प्रभु का विस्मरण कर भोग-वासनाओं में लिप्त रहता है और देव-दुर्लभ शरीर का सदुपयोग नहीं कर पाता है। इन्हीं भोग-वासनाओं के कीचड़ में डूबता-उतराता हुआ, अंत में मरण को प्राप्त हो जाता है। प्रत्येक प्राणी का मरण सुनिश्चित है। प्रत्येक प्राणी को इस स्वाभाविक परिवर्तन को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करने की तैयारी करनी चाहिए। जीवन के इस रहस्य को जानने वाला प्राणी अपने 'साधना-पथ' के दो प्रमुख स्तंभों-सत्संकल्प और समर्पण के आलोक में निर्मल मन के साथ अग्रसर होकर प्रभु की शरण में चला जाता है। प्राणी ईश्वर का 'अंश' है और अपने अंशी' से मिलने के पश्चात ही वह चेतन, निर्मल, सहज और सुखराशि हो पाता है। फिर किसी प्रकार का भय नहीं रहता है।

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