Sociology, asked by Vermasonia23108, 16 days ago

क्षत्रिय के लिए तप क्या है​
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Answered by ravanhere5
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Answer:

Explanation:

तपस् या तप का मूल अर्थ था प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है।[1] किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया और किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा।

परिचय

वास्तव में तपस् की भावना का विकास चार पुरुषार्थो और चार आश्रमों के सिद्धांत के विकास का परिणाम था। ये सभी विचार उत्तर वैदिक युग की ही देन हैं और यदि ऋग्वेद में तपस् का कोई विशेष उल्लेख न मिले तो इसमें आश्चर्य नहीं। हाँ तपस् का वह स्वरूप, जो तांत्रिक और गुह्यक होता है तथा जिसका उद्देश्य दूसरे को हानि पहुँचाना अथवा दूसरे के आक्रमण से अपने को बचाना होता है, अनार्य तत्वों से शूद्र अवश्य प्रभावित प्रतीत होता है। मूलत: मोक्ष की प्राप्ति का इच्छुक सन्यासी ही तपश्चर्या में रत हुआ। ब्राहम्णों और उपनिषदों में उसकी चर्चाएँ मिलने लगती हैं और ब्रह्म की प्राप्ति उसका उद्देश्य हो जाता है। सर्वस्वत्याग उसके लिये आवश्यक माना गया और यह समझा जाने लगा कि संसार में आवागमन के बंधनों से मुक्त होने के लिये वैराग्य ही नहीं नैतिक जीवन भी आवश्यक है। अत: जीवन के सभी सुखों का त्याग ही नहीं, शरीर को अनेक प्रकार से जलाना (तपस्) अथवा कष्ट देना भी प्रारंभ हो गया।

कुछ विदेशी विद्वान् (यथा-गेडेन, इंसाइक्लोपीडिया ऑव रेलिजन ऐंड इथिक्स्, जिल्द 2, पृष्ठ 88) तपस्या में निहित विचारों को आर्य और वैदिक न मानकर अवैदिक आदिवासियों की देन मानते हैं। किंतु यह सही नहीं प्रतीत होता। अनार्य और अवैदिक तत्व धीरे-धीरे वैदिक समाज के शूद्र वर्ग में समाहित हो गए, जिन्हें तपस्या का अधिकार प्राचीन धर्म और समाज के नेताओं ने दिया ही नहीं। विपरीत आचरण करने वाले शंबूक जैसे तपस्वी शूद्र तो दंडित भी हुए। यदि तपस् की विचारधारा का प्रारंभ उन अनार्य (शूद्र) तत्वों से हुआ होता तो यह परिस्थिति असंभव होती।

उद्देश्यों की भिन्नता से तपस्या के अनेक प्रकार और रूप माने गए। विद्याध्यायी ब्रह्मचारी, पुत्रकलत्र, धनसंपत्ति तथा ऐहिक सुखों के इच्छुक गृहस्थ, परमात्मा की प्राप्ति, ब्रह्म से लीन और मोक्षलाभ की इच्छा से प्रेरित संन्यासी मनोभिलषित वर अथवा स्त्री चाहनेवाले व्यक्ति, भगवान में लीन भक्त एवं देवीदेवताओं की कृपा चाहनेवाले सर्वसाधारण स्त्रीपुरुष, स्वधर्म और साधारण धर्म का पालन करने वाले साधारण जन आदि अनेक प्रकार के लोग भिन्न भिन्न रूपों में तपस का सिंद्धांत मानते और उसका प्रयोग करते। तपस् की प्रवृति का केंद्र था शरीर को कष्ट देना। उसके जितने ही बहुविध रूप हुए अथवा कठोरता बढ़ी, तपस का उतना ही चरमोत्कर्ष माना गया।

Answered by ImpressAgreeable4985
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The original meaning of tapas or austerity was the light or ignition which is evident in the sun or fire.[1] But gradually it developed a connotation and meant the physical suffering to be taken for the attainment of a particular purpose or spiritual and physical discipline. It was called tapa.

introduction

In fact the development of the spirit of asceticism was the result of the development of the theory of four purusharthas and four ashrams. All these ideas are the product of the later Vedic age and it is not surprising if there is no special mention of tapas in the Rigveda. Yes, that form of austerity, which is tantric and occult and whose purpose is to harm others or to save oneself from the attack of others, the Shudras certainly seem to be affected by non-Aryan elements. Basically, only a sannyasi desirous of attaining salvation was engaged in austerity. Discussions of it are found in Brahmins and Upanishads and attainment of Brahman becomes its aim. Universal renunciation was considered necessary for him and it was understood that to be free from the shackles of movement in the world, not only dispassion but also a moral life is necessary. Therefore, not only giving up all the pleasures of life, burning of the body in many ways (tapas) or suffering also started.

Some foreign scholars (eg-Geden, Encyclopedia of Religion and Ethics, Volume 2, page 88) consider the ideas contained in austerities to be the creation of non-Vedic tribes rather than Aryans and Vedic. But it doesn't seem right. The non-Aryan and non-Vedic elements gradually got absorbed into the Shudra class of the Vedic society, who were not given the right of penance by the leaders of the ancient religion and society. The ascetic Shudras like Shambuka, who behaved contrary, were also punished. If the ideology of tapas had originated from those non-Arya (Shudra) elements, then this situation would have been impossible.

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