कुटज पाठकलख०
) क्रोध
क्रोध .......
भंग करने वाला मनोविकार है।
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मूल तत्व की दोरंगी झलक का नाम व्यक्तावस्था है। यदि दु:ख के बिना सुख है तो यह अव्यक्त है। जीव अपने अस्तित्व की घोषणा द्वंद्वाभास ही से आरंभ करता है। उच्च प्राणी कहलानेवाला मनुष्य भी भावों की एक जोड़ी लेकर धरती पर गिरता है। उसके छोटे से हृदय में पहले दु:ख और आनंद भर ही के लिए जगह रहती है। ये मनोवेग ऐसे हैं जो मनुष्य यदि जन्म से स्ववर्गियों से अलग रखा जाय तो भी उत्पन्न होंगे। पेट के भरे रहने या खाली रहने के अनुभव ही से इनका आरंभ होता है। इन उद्वेगों के लिए दूसरे व्यक्तियों के साथ की अपेक्षा नहीं। जीवनारंभ में इन्ही दोनों के चिद्द हँसना और रोना देखे जाते हैं। यह न समझना चाहिए कि और प्रकार के भाव भी शिशु के हृदय में उमड़ते हैं पर वह उनका बोध नहीं करा सकता। प्रकृति इतना अन्याय कभी नहीं कर सकती। बच्चे के हृदय में उसी रूप में भाव उत्पन्न होते हैं जिस रूप में वह व्यंजित करता है। यह बात इस विचार से प्रत्यक्ष हो जाएगी कि इन्हीं दोनों मनोवेगों से क्रमश: और दूसरे मनोवेगों की उत्पत्ति और विकास होता है। सब मनोवेग दु:ख और आनंद ही के सामाजिक विकार हैं। दु:ख ही के गर्भ में क्रोध, भय, करुणा, घृणा और ईर्ष्या आदि के भाव रहते हैं जो आगे चलकर समाज के साथ संबंध बढ़ने और शरीर के साथ साथ मनसिक शक्तियों के पुष्ट और प्रशस्त होने पर पृथक् पृथक् रूप में प्रकट होने लगते हैं। जैसे यदि शरीर में कहीं सुई चुभने की पीड़ा हो तो केवल दु:ख होगा। पर यदि यह ज्ञान हो जाय कि सुई चुभानेवाला कोई दूसरा व्यक्ति है तो दु:ख अनष्टि वा प्रतिकार की प्रबल इच्छा से मिश्रित हो जाएगा और क्रोध कहलावेगा। जिस शिशु को पहले अपने ही दु:ख का ज्ञान होता था बढ़ने पर उसे अनुमन द्वारा औरों का क्लेश देखकर भी दु:ख होने लगता है जिसे हम करुणा वा दया कहते हैं। इसी प्रकार अज्ञान वा जिस पर अपना वश न हो ऐसे कारण से पहुँचनेवाले भावी अनिष्ट के निश्चय से जो दु:ख होता है वह भय कहलाता है। शिशु को जिसे यह निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती भय बिलकुल नहीं होता। यहाँ तक कि उसे मारने के लिए हाथ उठाएँ तो वह विचलित न होगा क्योंकि वह यह नहीं निश्चय कर सकता कि इस हाथ उठाने का परिणाम दु:ख होगा।