Hindi, asked by ravi22567, 11 months ago

कबीर की भक्ति भावना का स्वरूप स्पष्ट करे​

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Answered by anuragkashyap54
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कबीरदास जी निर्गुण भक्ति धारा के कवि हैं। जो एक ईश्वर पर विश्वास रखते थे। उन्होंने मूर्ति पूजा काम खंडन किया है। उनके अनुसार यदि पत्थर को पूजने से ईश्वर मिलते हैं तो वह केवल पत्थर को ही पूंजना चाहते हैं।

''पाथर पूजै हरी मिलै, तो मैं पूजूँ पहार ।

ताते तो चक्की भली, पीसि खाय संसार॥''

वह समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास करते थे। उनका भक्ति मार्ग अत्यंत सरल है वह ईश्वर को मंदिर , मस्जिद में नहीं बल्कि अपने मन में ढूंढ़ने बोलते थे।

वह यह भी है कहते हैं कि नाम से बड़ा इंसान का कर्म होता है इसलिए सदैव कर्म पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

ऊंचे कुल का जनमिया, करनी ऊँच न होय। सुबरन कलश सूरा भरा, साधू निंदै सोय॥

Answered by krishna210398
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Answer:

कबीर की भक्ति भावना का स्वरूप

Explanation:

कबीर की भक्ति सहज है। वे ऐसे मंदिर के पुजारी है जिसकी फर्ष हरी हरी घास जिस की दीवारें दसों दिशाएं हैं जिसकी छत नीले आसमान की छतरी है या साधना स्थान सभी मनुष्य के लिए खुला है। कबीर की भक्ति में एकग्र मन, सतत साधना, मानसिक पूजा अर्चना, मानसिक जाप और सत्संगति को विशेष महत्व दिया गया है।

कबीर की भक्ति भावना में प्रेम को आकर्षक और प्रभावी महत्व दिया गया है उनका मानना है कि मानव प्रेम में भी ईश्वर की कृपा होती है कन कन में समाया राम ही मानवतावादी दृष्टिकोण का प्रेरणाधार है कबीर के सच्चे भक्त थे विभक्ति की महिमा गाते नहीं अघाते।भक्ति ही जीवन को व्यर्थ बताते हैं ऐसा व्यक्ति बार-बार जन्म लेकर संसार में आता जाता रहता है। कबीर की भक्ति सहज है। वे ऐसे मंदिर के पुजारी है जिसकी फर्ष हरी हरी घास जिस की दीवारें दसों दिशाएं हैं जिसकी छत नीले आसमान की छतरी है या साधना स्थान सभी मनुष्य के लिए खुला है। कबीर की भक्ति में एकग्र मन, सतत साधना, मानसिक पूजा अर्चना, मानसिक जाप और सत्संगति को विशेष महत्व दिया गया है। इस प्रकार कबीर की भक्ति भावना बहुत ही अद्भुत है।

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