कबीर दास जी छः दोहे चाहिए
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1.पहला दोहा
पाहन पूजे हरि मिले , तो मैं पूजूं पहार
याते चाकी भली जो पीस खाए संसार। ।
निहित शब्द – पाहन – पत्थर , हरि – भगवान , पहार – पहाड़ , चाकी – अन्न पीसने वाली चक्की।
व्याख्या –
कबीरदास का स्पष्ट मत है कि व्यर्थ के कर्मकांड ना किए जाएं। ईश्वर अपने हृदय में वास करते हैं लोगों को अपने हृदय में हरि को ढूंढना चाहिए , ना की विभिन्न प्रकार के आडंबर और कर्मकांड करके हरि को ढूंढना चाहिए। हिंदू लोगों के कर्मकांड पर विशेष प्रहार करते हैं और उनके मूर्ति पूजन पर अपने स्वर को मुखरित करते हैं। उनका कहना है कि पाहन अर्थात पत्थर को पूजने से यदि हरी मिलते हैं , यदि हिंदू लोगों को एक छोटे से पत्थर में प्रभु का वास मिलता है , उनका रूप दिखता है तो क्यों ना मैं पहाड़ को पूजूँ।
वह तो एक छोटे से पत्थर से भी विशाल है उसमें तो अवश्य ही ढेर सारे भगवान और प्रभु मिल सकते हैं। और यदि पत्थर पूजने से हरी नहीं मिलते हैं तो इससे तो चक्की भली है जिसमें अन्न को पीसा जाता है।
उस अन्य को ग्रहण करके मानव समाज का कल्याण होता है। उसके बिना जीवन असंभव है तो क्यों ना उस चक्की की पूजा की जाए।
2.दूसरा दोहा
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मै गई मै भी हो गयी लाल। ।
निहित शब्द – लाली – रंगा हुआ , लाल – प्रभु , जित – जिधर , देखन – देखना।
विशेष – अनुप्रास अलंकार , और उत्प्रेक्षा अलंकार का मेल है।
व्याख्या –
कबीरदास यहां अपने ईश्वर के ज्ञान प्रकाश का जिक्र करते हैं। वह कहते हैं कि यह सारी भक्ति यह सारा संसार , यह सारा ज्ञान मेरे ईश्वर का ही है। मेरे लाल का ही है जिसकी मैं पूजा करता हूं , और जिधर भी देखता हूं उधर मेरे लाल ही लाल नजर आते हैं। एक छोटे से कण में भी , एक चींटी में भी , एक सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों में भी मेरे लाल का ही वास है। उस ज्ञान उस प्राण उस जीव को देखने पर मुझे लाल ही लाल के दर्शन होते है और नजर आते हैं। स्वयं मुझमें भी मेरे प्रभु का वास नजर आता है।
3.तीसरा दोहा
आए हैं तो जायेंगे राजा रंक फ़कीर।
एक सिंघासन चढ़ चले एक बंधे जंजीर। ।
निहित शब्द – राजा – महाराज , रंक – गुलाम , फ़क़ीर – घूम – घूमकर भक्ति करने वाला।
व्याख्या –
कबीरदास का नाम समाजसुधारकों में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उन्होंने विभिन्न आडंबरों और कर्मकांडों को मिथ्या साबित किया। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि कर्म किया जाए। अर्थात अपने जन्म के उद्देश्य को पूरा किया जाए , ना कि विभिन्न आडंबरों और कर्मकांडों में फंसकर यहां का दुख भोगा जाए। वह कहते हैं कि मृत्यु सत्य है चाहे राजा हो या फकीर हो या एक बंदीगृह का एक साधारण आदमी हो। मरना अर्थात मृत्यु तो सभी के लिए समान है।
चाहे वह राजा हो या फकीर हो बस फर्क इतना है कि एक सिंहासन पर बैठे हुए जाता है और एक भिक्षाटन करते हुए चाहे एक बंदीगृह में बंदी बने बने।
अर्थात कबीर दास कहते हैं मृत्यु को सत्य मानकर अपने कर्म को सुधारते हुए अपना जीवन सफल बनाना चाहिए।
4.चौथा दोहा
माला फेरत जुग भया , फिरा न मन का फेर।
करका मनका डार दे , मन का मनका फेर। ।
निहित शब्द – माला – जाप करने का साधन , फेरत – फेरना जाप करना , जुग – युग , करका – हाथ का , मनका – माला , डार – डाल ,फेंक देना , मन का – मष्तिष्क का , मनका – माला।
विशेष – अनुप्रास अलंकार ‘ म ‘ की आवृत्ति हो रही है।
व्याख्या –
कबीरदास का नाम समाज सुधारकों में अग्रणी रूप से लिया जाता है .वह धर्म में फैले कुरीति और अविश्वास अंधविश्वास को सिरे से नकारते हुए कहते हैं। माला फेरने से कुछ नहीं होता, माला फेरते – फिरते युग बीत जाता है , फिर भी मन में वह सद्गति नहीं अभी जो एक प्राणी में होना चाहिए। इसलिए वह कहते हैं कि यह सब मनके के मालाएं व्यर्थ है। इन सबको छोड़ देना चाहिए , यह सब मन का , मन का फेर है कि माला फेरने से मन की शुद्धि होती है।
मन में सदविचार आते हैं और ईश्वर की प्राप्ति होती है।
यह सब आडंबर है अपने हृदय को अपने मस्तिष्क को स्वच्छ साफ और निश्चल रखिए ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होगी और उसे ढूंढने के लिए कहीं बाहर नहीं जाना , अपने अंदर स्वयं खोजना है।
ईश्वर अपने अंदर विराजमान है बस उसे ढूंढने की जरूरत है।
5.पांचवा दोहा
माया मुई न मन मुआ , मरी मरी गया सरीर।
आशा – तृष्णा ना मरी , कह गए संत कबीर। ।
निहित शब्द – माया – भ्रम , मुई – मरा , तृष्णा – पाने की ईक्षा।
व्याख्या –
कबीरदास स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि यह संसार मायाजाल है , इस मायाजाल में फंसकर लोगों की हालत मृगतृष्णा के समान हो गई है। लोग इधर-उधर भटक रहे हैं। यह भटकन उनकी मायाजाल है इसी में भटकते – भटकते एक दिन वह इस मायाजाल से बाहर निकल जाता है , अर्थात मर जाता है। लोग सांसारिक सुख और आशा तृष्णा में रहकर फंस गए हैं। उसी माया की चाह के लिए उसकी प्राप्ति के लिए दिन – रात जतन करते रहते हैं। इससे उनकी आशा – तृष्णा भी समाप्त नहीं हो पाती है और अंत में उसी गति को प्राप्त करते हैं , जो उसकी नियति में निहित है।
तो क्यों ना इस आशा तृष्णा से मुक्ति का प्रयास किया जाना चाहिए जबकि मृत्यु सत्य है।
कबीर के दोहे जीवन में परिवर्तन लाने का एक गज़ब का साधन है |
6.छठा दोहा
निर्गुण राम जपो रे भाई
निहित शब्द – निर्गुण – जो अदृश्य हो।
व्याख्या –
कबीरदास ‘ राम ‘ नाम के उपासक थे , किंतु उनके राम दशरथ पुत्र राम ना होकर ‘ निर्गुण ‘ , ‘ निराकार ‘ थे। कबीरदास निर्गुण और निराकार के उपासक थे वह निरंकार रूपी ईश्वर की आराधना करने की बात करते थे।
Answer:
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ: बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
–3–
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ: इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
–4–
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !
–5–
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ: मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !