Hindi, asked by hunnydahiya55, 4 months ago

कबीरदास की सामाहिक चेतना को स्पष्ट कीहिए |​

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Answered by manishdelhi561
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Explanation:

संत कबीर निर्गुण मत के अनुयायी कवि है। भक्ति काल में निर्गुण भक्तों में कबीर को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। भारतभूमि जो अनेक रत्नों की खान रही है उन्हीं महान् रत्नों में से एक थे संत कबीर। कबीर का अरबी भाषा में अर्थ है - महान्। वे भक्त और कवि बाद में थे, पहले समाज सुधारक थे। वे सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर की भाषा सधुक्कड़ी थी तथा उसी भाषा में कबीर ने समाज में व्याप्त अनेक रूढ़ियों का खुलकर विरोध किया है। हिन्दी साहित्य में कबीर के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। रामचन्द्र शुक्ल ने भी उनकी प्रतिभा मानते हुए लिखा है “ प्रतिभा उनमें बड़ी प्रखर थी। ”

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कबीर के समय में देश संकट की घड़ी से गुजर रहा था। सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह से डगमगाई हुई थी। अमीर वर्ग, वैभव - विलासिता का जीवन जी रहा था, वहीं गरीब दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहा था। हिन्दू और मुस्लिम के बीच जाति - पांति, धर्म और मजहब की खाई गहरी होती जा रही थी। एक महान क्रान्तिकारी कवि होने के कारण उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों, बुराईयों को उजागर किया। संत कबीर भक्तिकालीन एकमात्र ऐसे कवि थे जिन्होंने राम - रहीम के नाम पर चल रहे पाखंड, भेद - भाव, कर्म - कांड को व्यक्त किया था। आम आदमी जिस बात को कहने क्या सोचने से भी डरता था, उसे कबीर ने बड़े निडर भाव से व्यक्त किया था। कबीर ने अपनी वाणी द्वारा समाज में व्याप्त अनेक बुराईयों को दूर करने का प्रयास किया। उनके साहित्य में समाज सुधार की जो भावना मिलती है। उसे हम इस प्रकार से देख सकते हैं।

धार्मिक पाखण्ड का विरोध करते हुए कबीर कहते हैं भगवान को पाने के लिए हमें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। वह तो घट - घट का वासी है। उसे पाने के लिए हमारी आत्मा शुद्ध होनी चाहिए। भगवान न तो मंदिर में है, न मस्जिद में है। वह तो हर मनुष्य में है।

‘‘ कस्तुरी कुण्डली बसै, मृग ढूंढें बन माँहि।

एसै घटि घटि राम हैं, दुनियाँ देखै नाँहि।।

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“ माला फेरत जुग गया, गया न मन फेर,

कर का मनका डारि के मन का मनका फेर। ”

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कबीर ने मूर्ति पूजा की भी कड़े शब्दों में निंदा की है। अगर पत्थर पूजने से भगवान मिलता है तो मैं तो पूरे पहाड़ को ही पूजने लग जाऊंगा।

“ कबीर पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।

घर की चाकी कोउ न पूजै, जा पीसा खाए संसार।। ” 4

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