कला को कलाकार से स्वतंत्र देखा जाना चाहिए। essay
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मानव जीवन मैं कला का महत्वपूर्ण स्थान है । ‘कला’ शब्द संस्कृत की कल धातु में कच तथा टाप (कल + कच + टाप) लगाने से बनता है । संस्कृत कोश में यह शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है जैसे-किसी वस्तु का खोल, खण्ड, चन्द्रमा की एक रेखा, शोभा, अलंकरण, कुशलता अथवा मेधाविता आदि । किन्तु इतिहास तथा संस्कृति में ‘कला’ से तात्पर्य सौन्दर्य, सुन्दरता अथवा आनन्द से है । अपने मनोगत भावों को सौन्दर्य के साथ दृश्य रूप में व्यक्त करना ही कला है ।
आचार्य क्षेमराज के अनुसार ‘अपने (स्व) किसी न किसी वस्तु के माध्यम से व्यक्त करना ही कला है और यह अभिव्यक्ति चित्र, नृत्य, मूर्ति, वाद्य आदि के माध्यम से होती है ।’ इस प्रकार कला मनुष्य की सौन्दर्य भावना को मूर्तरूप प्रदान करती है । वस्तुत: कला का उद्गम सौन्दर्य की मूलभूत प्रेरणा का ही परिणाम है ।
प्रत्येक कलात्मक प्रक्रिया का उद्देश्य सौन्दर्य तथा आनन्द की अभिव्यक्ति होता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा इस रूप में उसे अपनी भावनाओं तथा विचारों का प्रत्यक्षीकरण करना पड़ता है । यह प्रत्यक्षीकरण अथवा प्रकटीकरण कला के माध्यम से ही संभव है ।
प्राचीन भारत में कला को साहित्य और संगीत के समकक्ष मानते हुए मनुष्य के लिये उसे आवश्यक बताया गया है । भर्तृहरि ने अपने नीतिशतक में स्पष्टत: लिखा है कि साहित्य, संगीत तथा कला से हीन मनुष्य पूँछ और सींग से रहित साक्षात् पशु के समान है-