कमलदेवी चट्टोपाध्याय की जीवनगाथा का सारांश लिखिए।
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कमलादेवी चट्टोपाध्याय (3 अप्रैल 1903 – 29 अक्टूबर 1988) भारतीय समाजसुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, तथा भारतीय हस्तकला के क्षेत्र में नवजागरण लाने वाली गांधीवादी महिला थीं। उन्हें सबसे अधिक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान के लिए; स्वतंत्र भारत में भारतीय हस्तशिल्प, हथकरघा, और थियेटर के पुनर्जागरण के पीछे प्रेरणा शक्ति के लिए; और सहयोग की अगुआई करके भारतीय महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक स्तर के उत्थान के लिए याद किया जाता था। उन्हे समाज सेवा के लिए १९५५ में पद्म भूषण से अलंकृत किया गया।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय
जन्म
कमलादेवी
03 अप्रैल 1903
मंगलौर, कर्नाटक, भारत
मृत्यु
29 अक्टूबर 1988 (उम्र 85)
बॉम्बे, महाराष्ट्र, भारत
शिक्षा प्राप्त की
बेडफोर्ड कॉलेज (लंदन)
जीवनसाथी
कृष्ण राव (वि॰ 1917–19)
हरिंदरनाथ चट्टोपाध्याय (वि॰ 1919–88)
बच्चे
रामाकृष्ण चट्टोपाध्याय
पुरस्कार
रेमन मैगसेसे पुरस्कार (1966)
पद्म भूषण (1955)
पद्म विभूषण (1987)
डॉ॰ कमलादेवी ने आजादी के तुरंत बाद शिल्पों को बचाए रखने का जो उपक्रम किया था उसमें उनकी नजर में बाजार नहीं था। उनकी पैनी दृष्टि यह समझ चुकी थी कि बाजार को हमेशा सहायक की भूमिका में रखना होगा। यदि वह कर्ता की भूमिका में आ गया तो इसका बचना मुश्किल होगा, परंतु पिछले तीन दशकों के दौरान भारतीय हस्तशिल्प जगत पर बाजार हावी होता गया और गुणवत्ता में लगातार उतार आता गया। भारतभर के हस्तशिल्प विकास निगमों ने शिल्पों को बाजार के नजरिये से देखना शुरू कर दिया। उनको इसमें आसानी और सहजता भी महसूस हो रही थी।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय
जन्म
कमलादेवी
03 अप्रैल 1903
मंगलौर, कर्नाटक, भारत
मृत्यु
29 अक्टूबर 1988 (उम्र 85)
बॉम्बे, महाराष्ट्र, भारत
शिक्षा प्राप्त की
बेडफोर्ड कॉलेज (लंदन)
जीवनसाथी
कृष्ण राव (वि॰ 1917–19)
हरिंदरनाथ चट्टोपाध्याय (वि॰ 1919–88)
बच्चे
रामाकृष्ण चट्टोपाध्याय
पुरस्कार
रेमन मैगसेसे पुरस्कार (1966)
पद्म भूषण (1955)
पद्म विभूषण (1987)
डॉ॰ कमलादेवी ने आजादी के तुरंत बाद शिल्पों को बचाए रखने का जो उपक्रम किया था उसमें उनकी नजर में बाजार नहीं था। उनकी पैनी दृष्टि यह समझ चुकी थी कि बाजार को हमेशा सहायक की भूमिका में रखना होगा। यदि वह कर्ता की भूमिका में आ गया तो इसका बचना मुश्किल होगा, परंतु पिछले तीन दशकों के दौरान भारतीय हस्तशिल्प जगत पर बाजार हावी होता गया और गुणवत्ता में लगातार उतार आता गया। भारतभर के हस्तशिल्प विकास निगमों ने शिल्पों को बाजार के नजरिये से देखना शुरू कर दिया। उनको इसमें आसानी और सहजता भी महसूस हो रही थी।
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