कर्तवचक संज्ञा
बाग-
प्रचार-
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तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः -- जो अपनेमें लौकिकपारलौकिक प्राकृत पदार्थोंकी महत्ता? लिप्सा? आवश्यकता रखता है और रखना चाहता है? वह पराभक्ति ( 18। 68) के अन्तर्गत नहीं आ सकता। पराभक्तिके अन्तर्गत नहीं आ सकता है? जिसका प्राकृत पदार्थोंको प्राप्त करनेका किञ्चिन्मात्र भी उद्देश्य नहीं है और जो भगवत्प्राप्ति? भगवद्दर्शन? भगवत्प्रेम आदि पारमार्थिक उद्देश्य रखकर गीताके अनुसार ही अपना जीवन बनाना चाहता है। ऐसा पुरुष ही भगवद्गीताके प्रचारका अधिकारी होता है। यदि उसमें कभी मानबड़ाई आदिकी इच्छा आ भी जाय तो वह टिकेगी नहीं क्योंकि मानबड़ाई आदि प्राप्त करना उसका उद्देश्य नहीं है।भगवान्के भक्तोंमें गीताका प्रचार करनेवाले उपर्युक्त अधिकारी मनुष्यके लिये ही तस्मात् पद देकर भगवान् कहते हैं कि मनुष्योंमें उसके समान मेरा प्रियकृत्तम अर्थात् अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला कोई भी नहीं है क्योंकि गीताप्रचारके समान दूसरा मेरा कोई प्रिय कार्य है ही नहीं।प्रियकृत्तमः पदमें जो कृत् पद आया है? उसका तात्पर्य है कि गीताका प्रचार करनेमें उसका अपना कोई स्वार्थ नहीं है? मानबड़ाई? आदरसत्कार आदिकी कोई कामना नहीं है केवल भगवत्प्रीत्यर्थ गीताके भावोंका प्रचार करता है। इसलिये वह प्रियकृत्तम -- भगवान्का अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला है।मनुष्योंमें प्रियकृत्तम कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्का अत्यन्त प्यारा बननेके लिये मनुष्योंको ही अधिकार है। संसारमें कामनाओंकी पूर्ति कर लेना कोई महत्त्वकी? बहादुरीकी बात नहीं है। देवता? पशुपक्षी? नारकीय जीव? कीटपतङ्ग? वृक्षलता आदि सभी योनियोंमें कामनाकी पूर्ति करनेका अवसर मिलता है परन्तु कामनाका त्याग करके परमात्माकी प्राप्ति करनेका अवसर तो केवल मनुष्ययोनिमें ही मिलता है। इस मनुष्ययोनिको प्राप्त करके परमात्माकी प्राप्ति करनेमें? परमात्माका अत्यन्त प्यारा बननेमें ही मनुष्यजन्मकी सफलता है।भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि -- जिसमें अपनी मानबड़ाईकी वासना है? कुछ स्वार्थभाव भी है और जिसका अपना उद्धार करनेका तथा गीताके अनुसार जीवन बनानेका उद्देश्य वैसा (प्रियकृत्तमके समान) नहीं बना है परन्तु जिसके हृदयमें गीताका विशेष आदर है और गीताका पाठ करवाना? गीता कण्ठस्थ,करवाना? गीता मुद्रित करवाकर उसकी सस्ती बिक्री करना आदि किसी तरहसे गीताका प्रचार करता है और लोगोंको गीतामें लगाता है? उसके समान पृथ्वीमण्डलपर मेरा दूसरा कोई प्रियतर नहीं होगा।अपने धर्म? सम्प्रदाय? सिद्धान्त आदिका प्रचार करनेवाला व्यक्ति भगवान्का प्रिय तो हो सकता है? पर प्रियतर नहीं होगा। प्रियतर तो किसी तरहसे गीताका प्रचार करनेवाला ही होगा।भगवद्गीतामें अपना उद्धार करनेकी ऐसीऐसी विलक्षण? सुगम और सरल युक्तियाँ बतायी गयी हैं? जिनको मनुष्यमात्र अपने आचरणोंमें ला सकता है। तात्पर्य यह है कि जो गीताका आदर करता है? ऐसा मनुष्य हिंदू? मुसलमान? ईसाई? यहूदी? पारसी? बौद्ध आदि किसी भी धर्मको माननेवाला क्यों न हो किसी भी देश? वेश? वर्ण? आश्रम? सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो अपनी रुचिके अनुसार किसी भी शैली? उपाय? सिद्धान्त? साधनको माननेवाला क्यों न हो? वह यदि अपना किसी तरहका आग्रह न रखकर? पक्षपातविषमताको छोड़कर? किसी भी प्राणीको दुःख पहुँचानेवाली चेष्टाका त्याग करके? मनमें किसी भी लौकिकपारलौकिक उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुकी कामना न रखकर? अपना सम्प्रदाय? अपनी टोनी बनानेका उद्देश्य न रखकर? केवल अपने कल्याणका उद्देश्य रखकर गीताके अनुसार चलता है (अकर्तव्यका सर्वथा त्याग करके प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्यका लोकहितार्थ? निष्कामभावपूर्वक पालन करता है)? तो वह भी जीविकासम्बन्धी और खानापीना? सोनाजागना आदि शरीरसम्बन्धी सब काम करते हुए परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है? महान् आनन्द? महान् सुखको (गीता 6। 22) प्राप्त कर सकता है।गीता वेश? आश्रम? अवस्था? क्रिया आदिका परिवर्तन करनेके लिये नहीं कहती? प्रत्युत परिमार्जन करनेके लिये कहती है अर्थात् केवल अपने भाव और उद्देश्यको शुद्ध बनानेके लिये कहती है। गीताकी ऐसी युक्तियोंको जो भगवान्की तरफ चलनेवाले भक्तोंमें कहेगा? उससे उन भक्तोंको पारमार्थिक मार्गमें बढ़नेकी युक्तियाँ मिलेंगी? शंकाओंका समाधान होगा? साधनकी उलझनें सुलझेंगी? पारमार्थिक मार्गकी बाधाएँ दूर होंगी? जिससे वे उत्साहसे सुगमतापूर्वक बहुत ही जल्दी अपने लक्ष्यको प्राप्त कर सकेंगे। इसलिये वह भगवान्को सबसे अधिक प्यारा होगा क्योंकि भगवान् जीवके उद्धारसे बड़े राजी होते हैं? प्रसन्न होते हैं।
सम्बन्ध -- जिसमें गीताका प्रचार करनेकी योग्यता नहीं है? वह क्या करे इसको भगवान् आगे के श्लोकमें बताते हैं।
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