Hindi, asked by sonisingh3592, 5 months ago

कठोर तपस्या में लगे सिद्धार्थ ने किस कारण आहार लेने का निर्णय लिया?​

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Answered by shubhangi0019dubey
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Answer:

बुध पूर्णिमा न केवल बौध धर्म के अनुयायियों के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के लिये एक महत्वपूर्ण दिन है। इस साल यह 30 अप्रैल को है। बुध पूर्णिमा को बुद्ध जयंती और उनके निर्वाण दिवस के रूप में जाना जाता है। यानी यही वह दिन था जब बुद्ध ने जन्म लिया, शरीर का त्याग किया था और मोक्ष प्राप्त किया। भगवान बुद्ध को भगवान विष्णु का 9वां अवतार माना जाता है, इस दृष्टि से हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिये भी उनका महत्व है।

बुद्ध संन्यासी बनने से पहले कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ थे। शांति की खोज में वे 27 वर्ष की उम्र में घर-परिवार, राजपाट आदि छोड़कर चले गए थे। भ्रमण करते हुए सिद्धार्थ काशी के समीप सारनाथ पहुंचे, जहाँ उन्होंने धर्म परिवर्तन किया। यहाँ उन्होंने बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे कठोर तप किया। कठोर तपस्या के बाद सिद्धार्थ को बुद्धत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई और वह महान संन्यासी गौतम बुद्ध के नाम से प्रचलित हुए और अपने ज्ञान से समूचे विश्व को ज्योतिर्मय किया। बुद्ध ने जब अपने युग की जनता को धार्मिक-सामाजिक, आध्यात्मिक एवं अन्य यज्ञादि अनुष्ठानों को लेकर अज्ञान में घिरा देखा, साधारण जनता को धर्म के नाम पर अज्ञान में पाया, नारी को अपमानित होते देखा, शुद्रों के प्रति अत्याचार होते देखे-तो उनका मन जनता की सहानुभूति में उद्वेलित हो उठा। वे महलों में बंद न रह सके। उन्होंने स्वयं प्रथम ज्ञान-प्राप्ति का व्रत लिया था और वर्षों तक वनों में घूम-घूम कर तपस्या करके आत्मा को ज्ञान से आलोकित किया। स्वयं ने सत्य की ज्योति प्राप्त की और फिर जनता में बुराइयों के खिलाफ आवाज बुलन्द किया।

गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया और अत्यन्त कुशलता से बौद्ध भिक्षुओं को संगठित किया और लोकतांत्रिक रूप में उनमें एकता की भावना का विकास किया। इसका अहिंसा एवं करुणा का सिद्धांत इतना लुभावना था कि सम्राट अशोक ने दो वर्ष बाद इससे प्रभावित होकर बौद्ध मत को स्वीकार किया और युद्धों पर रोक लगा दी। इस प्रकार बौद्ध मत देश की सीमाएँ लांघ कर विश्व के कोने-कोने तक अपनी ज्योति फैलाने लगा। आज भी इस धर्म की मानवतावादी, बुद्धिवादी और जनवादी परिकल्पनाओं को नकारा नहीं जा सकता और इनके माध्यम से भेद भावों से भरी व्यवस्था पर जोरदार प्रहार किया जा सकता है। यही धर्म आज भी दुःखी एवं अशान्त मानवता को शान्ति प्रदान कर सकता है। ऊँच-नीच, भेदभाव, जातिवाद पर प्रहार करते हुए यह लोगों के मन में धार्मिक एकता का विकास कर रहा है। विश्व शान्ति एवं परस्पर भाईचारे का वातावरण निर्मित करके कला, साहित्य और संस्कृति के विकास के मार्ग को प्रशस्त करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

वास्तव में देखा जाए तो राज-शासन और धर्म-शासन दोनों का ही मुख्य उद्देश्य जनता को सन्मार्ग पर ले जाना है। परन्तु राज-शासन के अधिनायक स्वयं मोहमाया ग्रस्त प्राणी होते हैं, अतः वे समाज सुधार के कार्य में पूर्णतया सफल नहीं हो पाते। भला, जो जिस चीज को अपने हृदयतल में से नहीं मिटा सकता, वह दूसरे हजारों हृदयों से उसे कैसे मिटा सकता है? राज-शासन की आधारशिला प्रेम, स्नेह एवं सद्भाव की भूमि पर नहीं रखी जाती है, वह रखी जाती है, प्रायः भय, आतंक और दमन की नींव पर। यही कारण है कि राज-शासन प्रजा में न्याय, नीति और शांति की रक्षा करता हुआ भी अधिक स्थायी व्यवस्था कायम नहीं कर सकता। जबकि धर्म-शासन परस्पर के प्रेम और सद्भाव पर कायम होता है, फलतः वह सत्य-पथ प्रदर्शन के द्वारा मूलतः समाज का हृदय परिवर्तन करता है और सब ओर से पापाचार को हटाकर स्थायी न्याय, नीति तथा शांति की स्थापना करता है।

बुद्ध अन्ततोगत्वा इसी निर्णय पर पहुंचे कि भारत का यह दुःसाध्य रोग साधारण राजनीतिक हलचलों से दूर होने वाला नहीं है। इसके लिए तो सारा जीवन ही उत्सर्ग करना पड़ेगा, क्षुद्र परिवार का मोह छोड़ कर ‘विश्व-परिवार’ का आदर्श अपनाना होगा। राजकीय वेशभूषा से सुसज्जित होकर साधारण जनता में घुला-मिला नहीं जा सकता। वहां तक पहुंचने के लिए तो ऐच्छिक लघुत्व स्वीकार करना होगा, अर्थात् भिक्षुत्व स्वीकार करना होगा।

संन्यासी बनकर गौतम बुद्ध ने अपने आप को आत्मा और परमात्मा के निरर्थक विवादों में फँसाने की अपेक्षा समाज कल्याण की ओर अधिक ध्यान दिया। उनके उपदेश अधिकतर सामाजिक एवं सांसारिक समस्याओं तक ही सीमित रहे। यही कारण है कि उनकी बात लोगों की समझ में सहज रूप से ही आने लगी। महात्मा बुद्ध ने मध्यममार्ग अपनाते हुए अहिंसा युक्त दस शीलों का प्रचार किया तो लोगों ने उनकी बातों से स्वयं को सहज ही जुड़ा हुआ पाया। उनका मानना था कि मनुष्य यदि अपनी तृष्णाओं पर विजय प्राप्त कर ले तो वह निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार उन्होंने पुरोहितवाद पर करारा प्रहार किया और व्यक्ति के महत्त्व को प्रतिष्ठित किया।

मानवता को बुद्ध की सबसे बड़ी देन है भेदभाव को समाप्त करना। यह एक विडम्बना ही है कि बुद्ध की इस धरती पर आज तक छूआछूत, भेदभाव किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। उस समय तो समाज छूआछूत के कारण अलग-अलग वर्गों में विभाजित था। बौद्ध धर्म ने सबको समान मान कर आपसी एकता की बात की तो बड़ी संख्या में लोग बौद्ध मत के अनुयायी बनने लगे। कुछ दशक पूर्व डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर ने भारी संख्या में अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध मत को अंगीकार किया ताकि हिन्दू समाज में उन्हें बराबरी का स्थान प्राप्त हो सके। बौद्ध मत के समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देना आज भी बहुत आवश्यक है। मूलतः बौद्ध मत हिन्दू धर्म के अनुरूप ही रहा और हिन्दू धर्म के भीतर ही रह कर महात्मा बुद्ध ने एक क्रान्तिकारी और सुधारवादी आन्दोलन चलाया।

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