कविः चातकं किं शिक्षयति ?
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कविः प्रार्थनां करोति यत् हे प्रभो! ... (iii) ईश्वरं किं विकसितं कर्तुं कविः प्रार्थयति?
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कवि: उपदिशति यत् "स: सर्वेषां पुरतः दीनं वचः न ब्रूयात्"।
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रे रे चातक ! सावधानमनसा मित्र ! क्षणं श्रुयतम् |
अम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वे अपि नैतादृशा: ||
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधाम् गर्जन्ति केचिद् वृथा |
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनम् वच: ||
अर्थात्
हे चातक ! तुम क्षणभर सावधानी से मेरी बात सुनो | आकाश में सभी बादल उदार नहीं होते | उनमे से कुछ ही धरा को वर्षा से भिगोते हैं और कुछ व्यर्थ में ही गरजते हैं | तुम जिस जिस बादल को देखते हो उन सभी से दीनतापूर्ण वचन मत कहो |
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