Kavi n manav jiwan ka kya uddeshy btaya h
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मनुष्य पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है और इस श्रेष्ठता का मूल है प्रकृति प्रदत्त मानव मस्तिष्क की शक्ति, उसकी कल्पनाशीलता दूरदर्शिता, विचारशीलता, आकलन संवेदना आदि। इन्ही गुणों के बल पर मानव ने अन्य जीवों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध किया है। लेकिन अगर प्रकृति ने मनुष्य को इन विशेष गुणों से परिपूर्ण बनाया है तो इसके पीछे अवश्य ही कोई निश्चित उद्द्येश्य होगा।
मानव जीवन जिसे मनुष्य को विधाता का दिया हुआ सर्वोत्तम उपहार कहा जाय तो अतिश्योक्ति नही होगी। क्योंकि कोई व्यक्ति तभी महान बनता है जब वह अपनी महानता के चरम पर पहुचने तक जीवित रहे। वह एक घंटे या एक दिन में महान नही बन सकता। ऐसा भी देखने मे आता है की साधारण मनुष्य भी अनायास ही कभी कोई बड़ा कार्य कर जाता है तो क्या वह महान हो गया? नही, क्योंकि महानता तो वह कसौटी है जिसपर महान व्यक्ति हर सम-विषम परिस्थितियों में स्वयं को खरा उतारता है। अर्थात जीवन ही मनुष्य को महान बनने का अवसर प्रदान करता है।
लेकिन जीवन का लाभ वही उठा पाते हैं जो इसके उद्देश्य को पहचानते हैं। बिना उद्देश्य के हम किस मार्ग पर चलेंगे कहना कठिन है। परिस्थितियां मनुष्य को तब तक महान नहीं बना सकती जब तक वह स्वयं उन परिस्थितियों का लाभ उठाना न चाहे।
शायद ही कोई इस बात से इनकार करे की सुख की चाह सभी को होती है चाहे वह महान हो या साधारण, धर्मात्मा हो या अधर्मी, पुजारी हो या पापी। यह बात अलग है की सबके लिए सुख के मायने अलग हैं, उसे प्राप्त करने का साधन अलग है।
लेकिन सुख का अर्थ क्या है? जहाँ तक मैं समझता हूँ सुख का आशय संतुष्टी से है और यदि मनुष्य कर्म करके भी संतुष्ट न हो तो वह उस सुख से वंचित रह जाता है जिसके लिए वह कर्म करता है। कर्म कोई भी हो सकता है। कुछ ईर्ष्यालु जनों को दूसरों की निंदा करके, उनका तिरस्कार करके, दुःख पहुँचा के सुख का अनुभव होता है, धर्मात्मा को अपने धर्म का पालन करके और महत्वकांक्षी अपने महत्त्व को प्राप्त करके सुख का अनुभव करता है। यह कितनी आश्चर्यजनक बात है की सुख देने पर भी सुख की इच्छा और दुःख देने पर भी सुख की इच्छा। यह बात अलग है की कोई अपने प्रयोजन मे सफल न हो लेकिन इच्छा तो वह सुख की ही करता है।
अर्थात सुख जीवन के उद्देश्य का एक आधार स्तंभ है। अपने आप को सुखी रखने के लिए लोग तरह तरह के दुःख उठाते हैं। किसी पर उपकार भी करते हैं तो इस आशा मे की शायद वह बुरे दिनों में काम आ जाए। हम अपने सगे-सम्बन्धियों को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व क्यों देते हैं? ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना केवल भावना है जो सहज रूप मे चरितार्थ नही हो सकती। यद्यपि कुछ लोग अपवाद हैं लेकिन हमारा तात्पर्य जन-साधारण से है और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की जीवन का अधिकांस समय लोग अपने आप को सुखी बनाने में व्यतीत करते हैँ।
अतः उपरोक्त प्रसंगों से मानव जीवन के दो उद्देश्य सामने आते हैं-
1- अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए संघर्ष
2- सुख प्राप्त करने के लिए संघर्ष
लेकिन इसमें भी आदर्श स्थिति क्या हो सकती है? क्या किसी का तिरस्कार करके, विश्वासघात करके, चोरी करके हमें स्थाई सुख मिल सकता है? नहीं मिल सकता। यह छडिक उमंग की स्थितियां हैं जो भावनाओं के रूप में मस्तिष्क में आती हैं। उदाहरणार्थ अगर कोई आपका अहित करे या करने की सोचे तो आपके मन में भी यह बात आना स्वाभाविक है की आप भी उसका अहित करें। अगर वह अपने प्रयोजन में सफल हो जाए तो आपके मन मे ईर्ष्या और क्रोध की भावना और प्रबल होगी जो आपको सुख की बजाए दुःख की ओर ले जाएगी और यह स्थिति दोनों के लिए अहितकर और निराशाजनक होगी क्योंकि दोनों पक्ष एक दूसरे को दुःखी करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन हमारे अन्वेषण का केंद्र बिंदु वह संतुष्टी है जो मानव जीवन को प्रगतिशील ऊर्जावान तथा महान बनाती है।
मानव जीवन में लक्ष्य का स्पष्टीकरण आवश्यक है। वर्तमान समय मे मनुष्य के सामने कुछ विशेष समस्याएँ हैं और उन समस्याओं का समाधान भी उपलब्ध है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है की अमुक समस्या का समाधान ही हमारे जीवन का उद्देश्य भी है। बेरोजगार के लिए रोजगार पाना उनका लक्ष्य है, भूखे का लक्ष्य भोजन है। लेकिन जैसे ही लक्ष्य प्राप्त हो जाता है उसका महत्त्व हमारे लिए कम हो जाता है और हम नए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने लगते हैं। अर्थात हमारे जीवन मे लक्ष्य निरंतर बदलते रहते हैं और उन्हें प्राप्त करने का साधन भी।
वर्तमान समय में, विशेषकर भारत जैसे विकासशील देशों में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है और आज के अधिकांस युवा अच्छा रोजगार प्राप्त करना अपने जीवन का मूल उद्देश्य मानते हैं। कुछ हद तक उनका सोचना ठीक भी है क्योंकि यह सोच प्राकृतिक है और अनजाने में ही सही वो प्रकृति के ‘संघर्ष के नियम’ का अनुपालन कर रहे हैं।
हमारी संस्कृति और इतिहास इस बात को प्रमाणित करते हैं कि सफल और महान उन्ही व्यक्तियों को कहा गया है जिन्होंने अपने संचित ज्ञान का सदुपयोग किया और अधिक से अधिक प्रसार भी किया। अर्थात ज्ञान प्राप्त करना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण उसका सदुपयोग और अधिक से अधिक हस्तान्तरण। चाहे वह विज्ञान का क्षेत्र हो, खेल-कूद, साहित्य, कला, चिकित्सा शास्त्र, धर्मशास्त्र हो, हर क्षेत्र में महान और सफल हुए महापुरुषों की एक लंबी सूची है और इस सूची में उनका ही नाम है जिन्होंने अपने संचित ज्ञान का अधिक से अधिक सदुपयोग किया और आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाया।
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