Kavi Ne Mrityu ke Prati Nirbhay Bane Rahane ke liye Kyon kahan hai
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मनुष्य को सर्वाधिक भय मृत्यु का होता है क्योंकि उसके ज़ेहन में मृत्यु के पश्चात् क्या है, इसकी सदैव अनिश्चितता बनी रहती है। यूं तो भारतीय संस्कृति में पुनर्जन्म की मान्यता है फिर भी मनुष्य सांसारिक मोह-माया से छूटने के लिए तैयार नहीं हो पाता है। भय, जीवन यात्रा का महाशत्रु है जिससे प्रतिदिन उसकी मृत्यु होती है। जब कभी कठिन परिश्रम करके भी व्यक्ति असफल हो जाता है तो वह असफलता उसके लिए मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक होती है। मृत्यु तो अनिवार्य है ही किंतु मृत्यु के भय को आत्मिक चिंतन द्वारा निकालना जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। आत्मा, चेतन और अविनाशी है तथा शरीर नश्वर है। आत्मा पुराना शरीर छोड़कर नये शरीर में प्रवेश करती है। गीता में उल्लेख है `न जायते म्रियते वा कदाचित्..... अर्थात् आत्मा किसी काल में भी न जन्मती है और न मरती है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली है क्योंकि यह अजन्मी, नित्य, सनातन और पुरातन है। अब उत्तम यही है कि जीवन की वास्तविकता को समझकर निडर बनें। सतत् आत्मिक स्मृति में कार्य-व्यवहार करें।
मृत्यु का भय निकालिए - मृत्यु की उल्टी गिनती तो जन्म से ही आरम्भ हो जाती है किन्तु प्राय व्यक्ति इससे अनभिज्ञ रहता है। जैसे-जैसे शरीर पुराना होता जाता है, वह मृत्यु का स्मरण करके भय से आतंकित होता रहता है जबकि मृत्यु आतंकमयी नहीं बल्कि प्रसन्नता प्रदान करने वाली अल्प निद्रा है जिससे जागरण के पश्चात् आत्मा, बाह्य नाम-रूप का नया आवरण लेकर पुन आनन्दित हो उठती है। यूं तो मृत्यु एक निश्चित अनिवार्य घटना है, इससे हरेक व्यक्ति को गुज़रना ही होता है परन्तु जो जीवन-मरण के चक्र को स्मृति में रख मृत्यु के भय को जीत लेते हैं वे महान स़फलता व यश अर्जित करते हैं। युगद्रष्टाओं एवं महानात्माओ ने अपने आदर्श के सामने मृत्यु की चिन्ता कभी नहीं की। चन्द्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, सुकरात, क्राईस्ट, महर्षि दयानन्द आदि ने मृत्यु को सहज स्वीकार किया, ईश्वरीय कृपा समझ सरलता से अंगीकार किया। स्वतत्रता संग्राम के अग्रदूत खुदीराम बोस को जब फांसी की सज़ा सुनायी गयी तो वे खिलखिलाकर हँस रहे थे। न्यायाधीश ने आश्चर्यचकित हो कर अनुमान लगाया कि शायद इसने सुना नहीं। इसलिए पुन बोला - सुना तुमने! पुलिस इंस्पेक्टर पर बम फेंकने के अपराध में तुम्हें फांसी की सज़ा दी गयी है। खुदीराम बोस मुस्कराते हुए बोले `बस, इतनी-सी सज़ा जनाब। हम भारतीय मौत से नहीं डरते। यह तो मेरे लिए गर्व की बात है कि मातृभूमि की सेवा का मुझे मौका मिला है।' सचमुच जब मृत्यु आ रही है तो उससे घबराने की क्या बात है। उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी लिखते हैं -
जान लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी।
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करें सभी।।
निर्भयता से मृत्यु का स्वागत करें - जीवन के अनेक अवसरों पर हम उत्सव मनाते हैं, आनन्दित हो उठते हैं जैसे जन्मोत्सव, दीपोत्सव आदि। फिर मृत्योत्सव क्यों नहीं? यह तो ठीक है कि मृत्यु दुःखदाई है किन्तु मृत्यु के पश्चात् और जन्म के तक्षण ही आत्मा असीम शान्ति, उत्साह, आनन्द की अनुभूति करती है। फिर हम मृत्यु से बचने का उपाय क्यों करते हैं? मृत्यु के भय से जानवर भी इतना संताप-विलाप नहीं करता जितना कि मनुष्य करता है। आखिर हमारे सामर्थ्य एवं विद्वता का क्या अर्थ है? और हम जीना भी कितना चाहते हैं? जीर्ण-शीर्ण लबादा ढोने से बेहतर है कि इसको बदलने को उत्सुक रहें। मृत्यु जब भी आये उसके लिए मनोस्थिति तैयार रखें और मृत्यु का स्वागत करें, उसका अभिनन्दन करें। कविवर राम नरेश त्रिपाठी जी के शब्दों में -
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का, मृत्यु एक है विश्राम-स्थल।
जीव जहाँ से फिर चलता है, धारण कर नव जीवन-संबल।
मृत्यु एक सरिता है, जिसमें, श्रम से कातर जीव नहाकर।
फिर नूतन धारण करता है, काया-रूपी वस्त्र बहाकर।