ख. क्या कुटिल व्यंग्य ! दीनता वेदना से अधीर,
आशा से जिनका नाम रात-दिन जपती है,
दिल्ली के वे देवता रोज कहते जाते,
कुछ और धरो धीरज, किस्मत अब पता
किस्मते रोज ठप रहीं, मगर जलधर का ?
प्यासी हरियाली सूख रही है खेतों में,
निर्धन का धन पी रहे लोभ के पेत छिपे,
पानी विलीन होता जाता है रेतों में ।
हिल रहा देश कुसा के जिन आघातों से,
वे नाद तुम्हें ही नहीं सुनाई पड़ते हैं ?
निमीणों के प्रहरियों ! तुम्हें ही चोरों के काले
चेहरे क्या नहीं दिखाई पड़ते हैं ?
तो होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो,
सव दिन तो यह मोहिनी न चलनेवाली है,
होती जाती हैं गर्म दिशाओं की साँसे,
मिटटी फिर कोई आग उगलने वाली है।
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