(ख) व्याख्या करें:
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है ।
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Answer:
व्याख्या करें
(क)सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठीं,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
(ख)हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताप हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ
वह जिधर चाहती काल उधर ही मुड़ता है।
उत्तर-
(क) प्रस्तुत पंक्तियाँ रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित जनतंत्र का जन्म शीर्षक कविता से संकलित है। इसमें कवि स्वाधीन भारत की रूपरेखा को सजीवात्मक रूप से प्रदर्शित किया है। कवि की अभिव्यक्ति है कि स्वाधीनता मिलते ही भारत में जनतंत्र का उदय हो गया है। बुझी हुई राख धीरे-धीरे सुलगने लगी है। सोने का ताज पहनकर भारत आज इठला रहा है। वर्षों से त्रस्त जनता हुँकार भर रही है।
(ख) प्रस्तुत पंक्तियाँ उत्तर छायावाद के प्रखर कवि रामधारी सिंह दिनकर ‘द्वारा रचित जनतंत्र का जन्म’ शीर्षक कविता से संकलित है। पराधीन भारत की दयनीय स्थिति को देखकर कवि हृदय विचलित हो उठा था। स्वाधीनता मिलते ही उसका मुखमंडल दीप्त हो उठा है। जनता की हुँकार प्रबल बेग से उठती है। सिंहासन की बात कौंन कहें धरती भी काँप उठती है। उसके साँसों से ताप हवा में उठने लगते हैं। जनता की रूख जिधर उठती है उधर ही समय भी अपना मुख कर देता है। वस्तुतः यहाँ कवि कहना चाहता है कि जनता ही सर्वोपरि है। वह जिसे चाहती है उसे राजसिंहासन पर आरूढ़ करती है।
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Answer:
प्रस्तुत पंक्तियाँ रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित जनतंत्र का जन्म शीर्षक कविता से संकलित है।
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इसमें कवि स्वाधीन भारत की रूपरेखा को सजीवात्मक रूप से प्रदर्शित किया है। कवि की अभिव्यक्ति है कि स्वाधीनता मिलते ही भारत में जनतंत्र का उदय हो गया है। बुझी हुई राख धीरे-धीरे सुलगने लगी है। सोने का ताज पहनकर भारत आज इठला रहा है। वर्षों से त्रस्त जनता हुँकार भर रही है I