Kutiya mein Raj Bhavan summary
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Explanation:
मेरी कुटिया में राजभवन नामक कविता मैथिली शरण गुप्त द्वारा रचित है I इसका सारांश यह है, कि जब सीता जी और राम जी को 14 वर्ष का वनवास मिलता है तो वह वन में ही अपनी कुटिया बना लेती है, और राम जी से कहती हैं कि हे राम ! यह दृश्य तो किसी राजमहल से कम नहीं है, यहां पर धन दौलत का कोई भी मूल्य नहीं है I यहां पर हरियाली है, और चारों तरफ सुंदर पशु- पक्षी है I सीता जी कहती है कि यह दृश्य अति मनमोहक है और मुझे यह बहुत ही पसंद है I तब वहां पर ऋषि- मुनि उन्हें आकर आशीर्वाद देते हैं और फिर वह समर्पण भाव से उस स्थान में निवास करने लगते हैं अर्थात अपना वनवास काटने लगते हैं I
Answer:
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
सम्राट स्वयं प्राणेश, सचिव देवर हैं,
देते आकर आशीष हमें मुनिवर हैं।
धन तुच्छ यहाँ,-यद्यपि असंख्य आकर हैं,
पानी पीते मृग-सिंह एक तट पर हैं।
सीता रानी को यहाँ लाभ ही लाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ,
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ।
श्रमवारिविन्दुफल, स्वास्थ्यशुक्ति फलती हूँ,
अपने अंचल से व्यजन आप झलती हूँ॥
तनु-लता-सफलता-स्वादु आज ही आया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया॥
किसलय-कर स्वागत-हेतु हिला करते हैं,
मृदु मनोभाव-सम सुमन खिला करते हैं।
डाली में नव फल नित्य मिला करते हैं,
तृण तृण पर मुक्ता-भार झिला करते हैं।
निधि खोले दिखला रही प्रकृति निज माया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
कहता है कौन कि भाग्य ठगा है मेरा?
वह सुना हुआ भय दूर भगा है मेरा।
कुछ करने में अब हाथ लगा है मेरा,
वन में ही तो ग्रार्हस्थ्य जगा है मेरा,
वह बधू जानकी बनी आज यह जाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
फल-फूलों से हैं लदी डालियाँ मेरी,
वे हरी पत्तलें, भरी थालियाँ मेरी।
मुनि बालाएँ हैं यहाँ आलियाँ मेरी,
तटिनी की लहरें और तालियाँ मेरी।
सारांश : राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित यह पंक्तियां उनके "साकेत" नामक खंडकाव्य से ली गई है । इसके अंतर्गत सीताजी द्वारा अपनी कुटिया को राजभवन के सदृश मानकर वर्णन किया गया है। श्री सीता जी कहती है कि मेरी कुटिया का सौंदर्य राजभवन के जैसा है |
यहां पर स्वयं मेरे प्राण पति श्री राम राजा हैं तथा श्री लक्ष्मण जी जो मेरे देवर है वे सचिव है | यहां पर हमें मुनियों का आशीष प्राप्त होता है तथा यहां पर धन के बड़े-बड़े खजाने फीके पड़ जाते है ऐसा प्राकृतिक सौंदर्य तथा प्रेम है | यहां पर सिंह तथा हिरण एक ही तट पर हिंसा भुुलाकर एकसाथ पानी पीते हैं ।
यहां पर मैं दूसरों पर आश्रित नहीं हूं बल्कि स्वावलंबी हूं मैं अपना काम स्वयं करके संतोष प्राप्त करती हूं अर्थात यहां किसी प्रकार का सेवकों या सेविकाओं का दखल नहीं है | यहां प्रकृति अपना खजाना दोनों हाथों से लुटा रही है इसी कुटिया में मेरे गृहस्थ जीवन का शुभारंभ हुआ है इसलिए मैं स्वयं को हत भाग्य नहीं मानती | यहां मेरा मन निर्भीक होकर विचरण करता है |
यहां फल फूलों से लदी डालियाँ तथा हरी -हरी पत्तियाँ है |जो मेरे लिए क्रमशःश्रंगार औ रभोजन थाल है | मुनिकन्याएँ मेरी सहेलियां है |नदियों की लहरों के साथ मैं ताल से ताल मिलाने हेतु स्वतंत्र हूँ | यहां पर मैं वधु के रूप में नहीं अपितु जाया अर्थात पुत्री के रूप में रहन-सहन करती हूँ |