ले गए निर्देश बिंदु के अनुसार निबंध लिखिए यदि मैं विद्यालय का प्राचार्य होता और प्रस्तावना के सहित
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प्रधानाचार्य! यानि किसी शिक्षा देने वाली संस्था का मुखिया, जो अपने छात्रों का भविष्य बनाने और बिगाडने जैसे दोनों कार्यों में समान रूप से सहायक हुआ करता या हो सकता है। शिक्षा लेना और देना-मेरी दृष्टि में दोनों ही पवित्र, बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य हैं। इन कार्यों पर मानवता का वर्तमान और भविष्य तो टिका हुआ है ही, मानवता की प्रगति और विकास की सारी कहानी भी वास्तव में शिक्षा से ही आरम्भ होती है। प्रगति और विकास का सारा दारोमदार अच्छी, उन्नत, समय के अनुरूप शिक्षा पर ही है; आज का प्रत्येक व्यक्ति इस तथ्य से भली भाँति परिचित है। इसलिए जब मैं किसी शिया- का मुखिया यानि प्रधानाचार्य या प्रधानाध्यापक होने की बात सुनता हूँ, तो मेरे मन के सागर में कई तरह के विचार लहराने लगते हैं। मुझ से जैसे प्रश्न करने लगते हैं कि यदि मैं किसी विद्यालय का प्रधानाचार्य होता, तो?
यदि मैं प्रधानाचार्य होता, तो अपने छात्रों को पहला पाठ अनुशासन का पढाता। यों तो आज जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन हीनता का दौर चल रहा है; पर छात्रों में अनुशासनहीनता की बात सब से अधिक सुनने में आ रही है, जबकि वह कतई नहीं होनी चाहिए। वह इसलिए कि छात्र जीवन आगे आने वाले जीवन की बुनियाद है। आज के छात्रों ने ही बड़े होकर कल को जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश करना है। यदि अभी से वे अनुशासित रहना सीख लेंगे, तो भविष्य में भी प्रत्येक क्षेत्र में जाकर अनुशासित रह पाएँगे, ऐसी आशा उचित ही की जा सकती है। दूसरे मैं वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में बदलाव लाने की भी कोशिश करता। आज चल रही शिक्षा-प्रणाली इतनी घिस-पिट चुकी और पुरानी हो चुकी है कि उससे वास्तव में छात्रों या किसी को भी कुछ वास्वतिक लाभ नहीं पहुँच पा रहा सो प्रधानाचार्य होने पर चाहे मैं सारे देश में से तो बदल न पाता; पर अपने विद्यालय में ता निश्चय ही इसे सुधारने, इसमें समय के अनुसार परिवर्तन लाने की कोशिश अवश्य करता ताकि पूरे शिक्षा-जगत् के सामने एक आदर्श की स्थापना हो सके। देखा-देखी बाकी लोग भी इस दिशा में कदम उठा सकें।
प्रधानाचार्य होने पर मैं कम-से-कम अपने विद्यालय में तो शिक्षा को व्यावहारिक बनाने की कोशिश करता ही, शिक्षा देने यानि पढ़ाने-लिखाने के आजकल के बंधे-बँधाए क्रम को भी बदलने की कोशिश करता । कक्षा भवनों से बाहर निकल कर छात्रों को किताबी ज्ञान के साथ-साथ जीवन के व्यवहारों का ज्ञान कराने की व्यवस्था भी करता। अध्यापकों को पूरी तरह अनुशासन और समय के पाबन्द रह कर अपना कार्य करने को बाध्य करता। यह भी व्यवस्था करता कि जो छात्र जिस विषय में कुछ कमजोर है, उस विषय को पढ़ाने वाले अध्यापक छुट्टी के बाद अतिरिक्त समय देकर उस कमजोरी को दूर करें। आज-कल प्राय: अध्यापक नियमित कक्षाओं में तो पढ़ाने-लिखाने, छात्रों की कमियाँ दूर कर उन्हें परीक्षा के लिए तैयार करने की कोशिश करते नहीं। इसके स्थान पर घर पर छात्रों के गुप बना कर टयूशन करने-कराने के लिए दबाव डालते हैं। इस प्रकार के बनिया-मनोवृत्ति वाले अध्यापक वर्ग ने शिक्षा को भी एक तरह का व्यापार बना दिया है पचास-साठ का गुप बना कर टयूशन पढ़ाने और कक्षाओं में पढ़ाना लगभग एक जैसा ही है। यही कारण है कि ट्यूशन करके भी आज छात्र कुछ विशेष योग्यता हासिल नहीं कर पाता। प्रधानाचार्य होने पर मैं ट्यूशन करने पर सख्ती से पाबन्दी लगा देता। चोरी-छिपे ऐसे करते रहने वाले अध्यापकों को अध्यापकी छोड़ने के लिए विवश कर देता।
शिक्षा का अर्थ केवल पाठ्य पुस्तकें पढ़ कर कुछ परीक्षाएँ पास कर लेना मात्र ही नहीं हुआ करता; बल्कि तन-मन-मस्तिष्क और आत्मा का पूर्ण विकास करना भी हुआ करता है। खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज के विद्यालयों या शिक्षा की दुकानों में पाठ्य पुस्तकें पढ़ा-रठा कर परीक्षाएँ पास कराने की तरफ तो थोड़ा बहुत ध्यान दिया भी जाता है, पर अन्य बातों की ओर कतई कोई ध्यान नहीं दिया जाता। यदि मैं प्रधानाचार्य होता, तो उपर्युक्त अन्य बातों की ओर भी उचित ध्यान देता। कहना तो यह चाहिए कि मात्र परीक्षाएँ पास करने से भी कहीं अधिक ध्यान देता। कारण स्पष्ट है, वह यह कि आज की शिक्षा-प्रणाली छात्रों को मात्र साक्षर ही बना पाती है। अर्थात् अक्षरों को पढ़-लिख पाने तक ही सीमित रखा करती है, उन्हें वास्तविक अर्थों में शिक्षित नहीं बनाती। सुशिक्षित तो कदापि नहीं बनाती। इस लिए प्रधानाचार्य होने पर मैं कम-से-कम अपने विद्यालय के छात्रों को तो मात्र साक्षर नहीं, बल्कि सुशिक्षित बनाने की पूरी कोशिश करता, ताकि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो सके।
इन मुख्य बातों के अतिरिक्त प्रधानाचार्य होने पर मैं छात्रों के शारीरिक विकास के लिए व्यायाम और खेलों की उचित व्यवस्था कर उसे सभी के लिए अनिवार्य बना देता। शिक्षा-यात्राओं का आयोजन करा व्यावहारिक ज्ञान देने का प्रबन्ध करता। बौद्धिक-मानसिक विकास के लिए इस प्रकार के आयोजनों को बढ़ावा देता। स्वस्थ मनोरंजन की भी व्यवस्था कराई जाती। यदि वहाँ जनता और समाज तथा सरकार सहयोग करते तो इन सभी प्रकार क आयोजनों की निःशुल्क व्यवस्था करता।
मेरे विचार में भारत की सुदृढ और वास्तविक रूप से उन्नत भविष्य का निर्माण करने के लिए उपर्युक्त सभी बातें आवश्यक हैं। प्रधानाचार्यों तथा शिक्षा जगत से जो अन्य लोगों को इन की तरफ शीघ्र ही उचित ध्यान देना चाहिए।