लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका पक्ष
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मीडिया अथवा जनसंचार माध्यम किसी भी समाज या देश की वास्तविक स्थिति के प्रतिबिंब होते हैं। देश के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक फलक पर क्या कुछ घटित हो रहा है, इससे आम जन-मीडिया के द्वारा ही परिचित होते हैं। जनसंचार माध्यमों के विभिन्न रूपों ने आज दुनिया के लगभग हर होने तक अपनी पहुँच बना रखी है। मीडिया की शक्ति का आकलन उसकी व्यापक पहुंच के मद्देनजर किया जा सकता है। लेकिन इतनी शक्तियों और लगभग स्वतंत्र होने की वजह से मीडिया की देश और समाज के प्रति महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी है, इसीलिए लोकतंत्र में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद मीडिया को चैथा स्तम्भ माना जाता है।
सामान्यतया लोकतंत्र की तीन विशेषताएँ होती हैं - जनता का प्रतिनिधित्व, जनता के हितों का संरक्षण तथा जनता के प्रति उत्तरदायित्व। व्यवस्थापिका जनता का प्र
तिनिधित्व करती है। किंतु जनता के जागरूक न रहने पर ऐसे व्यक्तियों का चुनाव कर सकती है, जो ऊपर से जनता के हितों की बात करते हों किंतु वास्तव में अपने लाभ के लिये चुनाव लड़ रहे हों। जनता आतंकित होकर भी किसी बाहुबली या अपराधी का चुनाव करने को विवश हो सकती है। जनता कोअपने हितों को समझना भी जरूरी है। जटिल आर्थिक और सामाजिक संरचना में जनता को संकीर्ण जातिगत या क्षेत्रीय हितों के विरूद्ध राष्ट्रीय अथवा सम्पूर्ण समाज के विशाल हितों के बीच अंतर करना होता है और उसका कोई भी गलत निर्णय जटिल समस्याएँ खड़ी कर देता है। इस प्रकार स्वस्थ लोकमत का निर्माण आवश्यक हो जाता है। लोकमत के निर्माण में मीडिया की भूमिका सर्वाधिक सशक्त और महत्वपूर्ण होती है।
मीडिया से तात्पर्य जनसंचार के माध्यमों-समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन तथा चलचित्रों से है। समाचार-पत्र विविध घटनाओं, समस्याओं एवं विचारों के संबंध में जनता को सूचना प्रदान करने का कार्य करते हैं और साधारणतया समाचार-पत्रों में प्रकाशित सामाजिक, आर्थिक-राजनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय सूचनाओं के आधार पर ही जन-साधारण सार्वजनिक क्षेत्र से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार का निर्माण करता है। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक समाचार पत्र के संपादकीय अंश द्वारा पाठकों के विचारों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने का कार्य किया जाता है। समाचार-पत्र जनता की बात को शासन तक और शासन संबंधी तथ्यों को जनता तक पहुँचाने का काम करते हैं। शिक्षा के प्रसार के साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र की गतिविधियों पर जनता नजर रखना चाहती है और समाचार-पत्र इसके लिए भरपूर सूचना सामग्री जनता तक पहुँचाते हैं। साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं में राजनीतिक जीवन और सामाजिक-आर्थिक विषयों का विस्तृत विवेचन होता है जिसे पढ़कर जनता लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अधिकाधिक भागदारी प्राप्त करती है।
जहाँ तक समाचार पत्रों का सवाल है, तो इन्होंने शुरू से ही मानव के दृष्टिकोण एवं विचारों को प्रभावित किया है। दुनिया के तमाम देशों में हुई सामाजिक एवं राजनीतिक क्रांतियों के अलावा भारत के स्वाधीनता संघर्ष में समाचार-पत्रों में समाचार-पत्रों ने अभूतपूर्व भूमिका निभाई। पुनर्जागरण के अग्रदूत और भारतीय पत्रकारिता के जनक, राजाराम मोहनराय सहित अन्य सुधारकों ने भी अपने सुधार कार्यक्रमों को विस्तार देने तथा जन-जन तक पहुंचाने के लिए समाचार-पत्रों को माध्यम बनाया। इसके अलावा लोकमान्य बात गंगाधर तिलक ने ‘मराठा’ एवं ‘केसरी’, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने ‘बंगाली’, भारतेंदु हरिश्चन्द्र’ ने ‘संवाद कौमुदी’, लाला लाजपत राय ने ‘न्यू इंडिया’, अरविंद घोष ने ‘वंदे मातरम्’ तथा महात्मा गांधी ने ‘यंग इंडिया’ एवं ‘हरिजन’ के माध्यम से तथा अन्य महान नेताओं ने विभिन्न भाषाई समाचार-पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश शासन की शोषणकारी नीतियों एवं कार्यों को उजागर किया तथा उन्हें जन-सामान्य तक पहुंचाया। इन समाचार-पत्रों से ब्रिटिश शासन की शोषणकारी प्रवृत्ति का पर्दाफाश न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में होता था। समाचार-पत्रों की इस बहुआयामी भूमिका के कारण ही ब्रिटिश शासन द्वारा प्रेस पर कठोर प्रतिबंध आरोपित किए गए तथा कई समाचार-पत्रों एवं उनके संचालकों को अराजक घोषित कर दिया। लेकिन प्रेस द्वारा पैदा की गई जन-जागरूकता ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने में अमूल्य योगदान दिया।
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मीडिया अथवा जनसंचार माध्यम किसी भी समाज या देश की वास्तविक स्थिति के प्रतिबिंब होते हैं। देश के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक फलक पर क्या कुछ घटित हो रहा है, इससे आम जन-मीडिया के द्वारा ही परिचित होते हैं। जनसंचार माध्यमों के विभिन्न रूपों ने आज दुनिया के लगभग हर होने तक अपनी पहुँच बना रखी है। मीडिया की शक्ति का आकलन उसकी व्यापक पहुंच के मद्देनजर किया जा सकता है। लेकिन इतनी शक्तियों और लगभग स्वतंत्र होने की वजह से मीडिया की देश और समाज के प्रति महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी है, इसीलिए लोकतंत्र में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद मीडिया को चैथा स्तम्भ माना जाता है।
सामान्यतया लोकतंत्र की तीन विशेषताएँ होती हैं - जनता का प्रतिनिधित्व, जनता के हितों का संरक्षण तथा जनता के प्रति उत्तरदायित्व। व्यवस्थापिका जनता का प्रतिनिधित्व करती है। किंतु जनता के जागरूक न रहने पर ऐसे व्यक्तियों का चुनाव कर सकती है, जो ऊपर से जनता के हितों की बात करते हों किंतु वास्तव में अपने लाभ के लिये चुनाव लड़ रहे हों। जनता आतंकित होकर भी किसी बाहुबली या अपराधी का चुनाव करने को विवश हो सकती है। जनता कोअपने हितों को समझना भी जरूरी है। जटिल आर्थिक और सामाजिक संरचना में जनता को संकीर्ण जातिगत या क्षेत्रीय हितों के विरूद्ध राष्ट्रीय अथवा सम्पूर्ण समाज के विशाल हितों के बीच अंतर करना होता है और उसका कोई भी गलत निर्णय जटिल समस्याएँ खड़ी कर देता है। इस प्रकार स्वस्थ लोकमत का निर्माण आवश्यक हो जाता है। लोकमत के निर्माण में मीडिया की भूमिका सर्वाधिक सशक्त और महत्वपूर्ण होती है।
मीडिया से तात्पर्य जनसंचार के माध्यमों-समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन तथा चलचित्रों से है। समाचार-पत्र विविध घटनाओं, समस्याओं एवं विचारों के संबंध में जनता को सूचना प्रदान करने का कार्य करते हैं और साधारणतया समाचार-पत्रों में प्रकाशित सामाजिक, आर्थिक-राजनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय सूचनाओं के आधार पर ही जन-साधारण सार्वजनिक क्षेत्र से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार का निर्माण करता है। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक समाचार पत्र के संपादकीय अंश द्वारा पाठकों के विचारों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने का कार्य किया जाता है। समाचार-पत्र जनता की बात को शासन तक और शासन संबंधी तथ्यों को जनता तक पहुँचाने का काम करते हैं। शिक्षा के प्रसार के साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र की गतिविधियों पर जनता नजर रखना चाहती है और समाचार-पत्र इसके लिए भरपूर सूचना सामग्री जनता तक पहुँचाते हैं। साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं में राजनीतिक जीवन और सामाजिक-आर्थिक विषयों का विस्तृत विवेचन होता है जिसे पढ़कर जनता लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अधिकाधिक भागदारी प्राप्त करती है।
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Credits: Reed IAS