laghukatha lekhan on sangharsh ka soundarya
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एक व्यापारी अपने व्यापार को लेकर बहुत परेशान रहता था। उसका व्यापार में नुकसान हो रहा था और वह लगातार कर्ज में डूबता जा रहा था। वह संघर्ष करके थक चूका था। बहुत मेहनत के बावजूद भी अच्छे परिणाम उसे नहीं मिल रहे थे।
एक दिन उसनें सोचा कि कुछ दिनों के लिए वह सब काम छोड़कर जंगल चला जाए और वहां कुछ दिन अकेले बिताये और अपनी परेशानियों का हल खोजने के लिए मनन चिंतन करे।
जंगल में वक्त बिताते हुए उसे सात दिन हो चुके थे। उसका मन अब भी अपनी संघर्षों पर ही टिका हुआ था। बार-बार वह अपने संघर्षों के बारे में सोचकर दुःखी हो रहा था। तभी उसे एक साधू महात्मा दिखे, जो उसी जंगल में एकांत में बैठे ध्यान कर रहे थे। साधू के अपने आसन से उठने पर वह व्यापारी उनके पास गया और सारी बातें उन्हें कह डाली।
साधू मुस्कुराते हुए बोले, चलो मैं तुम्हें अपने बगीचे में लेकर चलता हूँ और वहां तुम्हें अपने संघर्ष के लिए उत्तर मिल जाएगा।
व्यापारी और साधू उनके बगीचे में चले गए।
साधु ने कहा कि घास से भरी इस हरियाली को देखो, मैंने यहाँ इसका बीज बोया था ताकि यहाँ हरी भरी घास से यह बगीचा भर जाए और हमारे गौ-माता के लिए भोजन की व्यवस्था हो सके। मैंने यहाँ घास की बीज और बांस के बीज लगाए थे। बहुत जल्दी घास जमीन से निकलकर बड़ी होने लगी लेकिन जिस जगह पर बांस के बीज थे वहां पर कुछ भी हलचल नहीं हुई। मैंने दोनों जगह ठीक वैसे ही देखभाल की लेकिन बांस जमीन से निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। हर साल घास और घनी हो रही थी लेकिन तीन साल में बांस के बीज पर कोई असर नहीं पड़ा। पांच साल बाद उस बांस के बीज से एक पौधा अंकुरित हुआ। छः वर्ष होने पर यह छोटा-सा बांस का पौधा सौ फ़ीट लम्बा हो गया। इन छः वर्षों में इसकी जड़ें इतनी मजबूत हो गईं कि सौ फ़ीट के ऊँचें बांस को संभाल सके। बांस के छः साल का यह संघर्ष उसे मजबूत बना रहा था।
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