मान्यतानुसार किम मान्दर के गर्मगृह में
पानी टपकने से वर्षा रस्तु
वर्षा ऋतु का पूर्वानुमान
लगाया जाता है?
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हैहैजा एक संक्रामक रोग है, जो विविरियो कोल्री नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। ये जीवाणु साधारण दूषित जल के माध्यम से रोगी से स्वस्थ मनुष्य के शरीर में पहुँचते हैं। कई बार सीधे रोगी के सम्पर्क में आने से स्वस्थ मनुष्य को हैजे का संक्रमण हो सकता है। हैजा को कॉलरा भी कहा जाता है। एक स्वस्थ मनुष्य के शरीर में मुँह के माध्यम से पहुँच कर विवरियो-कोल्री जीवाणु छोटी आँत का संक्रमण करते हैं। यह संक्रमण इन जीवाणुओं द्वारा स्रावित एक जहरीले पदार्थ के कारण होता है जिसे ‘इण्टीरोटॉक्सिन’ कहा जाता है। यह केवल मानव शरीर में स्थित छोटी आँत की दीवारों पर ही अपना दुष्प्रभाव डालता है जिसके फलस्वरूप रोगी को दस्त की शिकायत हो जाती है। आमतौर पर लगभग नब्बे प्रतिशत रोगियों में यह सामान्य अतिसार की तरह उत्पन्न होती है परन्तु कुछ लोगों में यह जानलेवा भी सिद्ध हो सकती है। यह रोग सभी आयु वर्गों में पाया जाता है, परन्तु छोटे बच्चे इसके कुप्रभाव से ज्यादा ग्रसित होते हैं।
हैजा का उल्लेख आयुर्वेद में भी मिलता है तथा सुश्रुत संहिता में भी इसका वर्णन किया गया है। गन्दे कुओं, नहरों, पोखरों, तालाबों तथा दूषित नदियों का पानी इस रोग को फैलाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। कई बार रोगी के मल व उसकी उल्टी के सम्पर्क में आने से भी यह रोग हो जाता है। मेलों तथा पर्वों के दौरान जब बहुत से लोग एक स्थान पर इकट्ठा होते हैं, तब इस रोग के फैलने की सम्भावना और भी बढ़ जाती है। यह रोग उन लोगों में ज्यादा पाया जाता है, जिनमें साफ-सफाई का अभाव होता है तथा बहुत से लोग एक छोटी जगह पर निवास करते हैं। मक्खियाँ कुछ सीमा तक इस बीमारी को फैलाने में अपनी भूमिका निभाती हैं। जब वे रोगी के मल अथवा उल्टी पर बैठती हैं तो हैजे के जीवाणु उनके शरीर से चिपक जाते हैं। यही मक्खियाँ जब अन्य खाद्य पदार्थों पर जाकर बैठती है तो उस खाद्य पदार्थ में हैजा के जीवाणु पहुँच जाते हैं तथा उसमें पनपने लगते हैं। इस खाद्य पदार्थ को अगर कोई स्वस्थ मनुष्य खा ले तो उससे हैजा हो जाने की सम्भावना होती है।
हैजा के लक्षणों में दस्त सर्वप्रमुख है। रोगी को दस्त ज्यादा मात्रा में, बिना पेट में दर्द हुए और पतले चावल के पानी की तरह आता है। दस्तों की संख्या 40-50 प्रतिदिन तक हो सकती है। दस्तों के साथ ही उल्टी शुरू हो जाती है। कई बार उल्टी की शिकायत रोगी दस्त लगने से पहले ही करते हैं। इस प्रकार दस्त और उल्टी के कारण रोगी के शरीर में पानी और लवणों की कमी हो जाती है। शरीर में हो रही पानी की कमी का पता आम आदमी इस प्रकार लगा सकता है कि रोगी की आँखें अन्दर धँस जाती हैं, गाल पिचक जाते हैं, त्वचा की चमक समाप्त हो जाती है, पेट अन्दर धंस जाता है, शरीर का तापमान सामान्य से कम हो जाता है, नब्ज पतली हो जाती है और कई बार रिकॉर्ड ही नहीं की जा सकती। पैरों तथा पेट की मांसपेशियों में खिंचाव तथा दर्द का अनुभव होता है, पेशाब कम आता है और जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है, पेशाब आना बिल्कुल बन्द हो जाता है, इससे गुर्दे काम करना बन्द कर देते हैं। रोग की इस अवस्था को ‘अक्यूट रीनल फेल्योर’ कहा जाता है। रोगी को बहुत बेचैनी होती है और उसे बार-बार प्यास की अनुभूति होती है। अगर इस अवस्था में भी उपचार न हो पाए तो रोगी मूर्छित हो जाता है। यह अवस्था इस बात पर निर्भर करती है कि रोगी के शरीर से तरल पदार्थ की समाप्ति कितनी जल्दी और कितने समय में हुई है। पानी की कमी के कारण डिहाइड्रेशन, शरीर में तेजाबी मात्रा ज्यादा हो जाने के कारण, एसिडॉसिस तथा लवण पदार्थों का सन्तुलन बिगड़ जाने के कारण, डिस्इलैक्ट्रोलाइटीमिया से रोगी की मृत्यु हो जाती है।
बचाव
कुछ मामूली-सी सावधानियाँ बरत कर हम सभी हैजा जैसे भयंकर रोग से बचाव कर सकते हैं। कभी भी गन्दे कुओं, तालाब, पोखरों, नहरों तथा दूषित नदियों के पानी को न पिएँ। जो हैण्ड-पम्प इन तालाबों, पोखरों तथा नदियों के किनारे स्थित हैं तथा कम गहराई के हैं, उनका पानी भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है। खाना खाने से पहले हाथ साबुन से अच्छी तरह से धोएँ। बाजार में बिक रहे कटे फल कभी न खाएँ। हो सके तो पानी को उबाल कर फिर उसे ठण्डा करके पिएँ। साफ व ताजे बने भोजन का सेवन करें। छोटे बच्चों को कभी भी बोतल से दूध न पिलाएँ। हैजा के रोगी के सम्पर्क में आने के बाद अपने हाथों को तुरन्त साबुन-पानी से धोएँ। ऐसे रोगी का मल तथा उल्टी कभी भी खुले स्थान पर अथवा नदियों, नहरों आदि में न फेंके।
इन सब बातों का ध्यान रखने के बाद भी अगर किसी अनजानी गलती की वजह से दस्त लग जाते हैं तो तुरन्त जीवनरक्षक घोल का सेवन शुरू कर देना चाहिए। इस घोल का मुख्य उद्देश्य शरीर में हो रहे पानी व लवणों की कमी को पूरा करना है और इससे हैजा के रोगियों में हो रही मृत्युदर को कम किया जा सकता है।
अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्रों में हैजे से बचाव के टीके भी लगाए जाते हैं। यह टीकाकरण दो टीकों के रूप में होता है, जो 4 से 6 सप्ताह के अन्तराल पर लगाए जाते हैं और 6 महीने के पश्चात बूस्टर टीका लगाया जाता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि यह टीका एक साल से कम उम्र के बच्चों को नहीं दिया जा सकता। यह टीका बहुत ज्यादा उपयोगी सिद्ध नहीं हो पा रहा क्योंकि इससे प्राप्त प्रतिरोधकता की अवधि कम होती है।
हैजा रोग को पूरी तरह से नियन्त्रित किया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि हम इससे बचाव पर पूर्णरूप से ध्यान दें।