मैं नदी बोला रही हूँ .......
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भूमिका : नदी प्रकृति के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसकी गति के आधार पर इसके बहुत नाम जैसे – नहर, सरिता, प्रवाहिनी, तटिनी, क्षिप्रा आदि होते हैं। जब मैं सरक-सरक कर चलती थी तब सब मुझे सरिता कहते थे। जब मैं सतत प्रवाहमयी हो गई तो मुझे प्रवाहिनी कहने लगे।
जब मैं दो तटों के बीच बह रही थी तो तटिनी कहने लगे और जब मैं तेज गति से बहने लगी तो लोग मुझे क्षिप्रा कहने लगे।साधारण रूप से तो मैं नदी या नहर ही हूँ। लोग चाहे मुझे किसी भी नाम से बुलाएँ लेकिन मेरा हमेशा एक ही काम होता है दूसरों के काम आना। मैं प्राणियों की प्यास बुझाती हूँ और उन्हें जीवन रूपी वरदान देती हूँ।नदी का जन्म : मैं एक नदी हूँ और मेरा जन्म पर्वतमालाओं की गोद से हुआ है। मैं बचपन से ही बहुत चंचल थी। मैंने केवल आगे बढना सीखा है रुकना नहीं। मैं एक स्थान पर बैठने की तो दूर की बात है मुझे एक पल रुकना भी नहीं आता है। मेरा काम धीरे-धीरे या फिर तेज चलना है लेकिन मै निरंतर चलती ही रहती हूँ।
मैं केवल कर्म में विश्वास रखती हूँ लेकिन फल की इच्छा कभी नहीं करती हूँ। मैं अपने इस जीवन से बहुत खुश हूँ क्योंकि मैं हर एक प्राणी के काम आती हूँ, लोग मेरी पूजा करते हैं, मुझे माँ कहते हैं, मेरा सम्मान करते हैं। मेरे बहुत से नाम रखे गये हैं जैसे – गंगा, जमुना, सरस्वती, यमुना, ब्रह्मपुत्र, त्रिवेणी। ये सारी नदियाँ हिंदू धर्म में पूजी जाती हैं।
नदी का घर त्यागना : मेरे लिए पर्वतमालाएं ही मेरा घर थी लेकिन मैं वहाँ पर सदा के लिए नहीं रह सकती हूँ। जिस तरह से एक लडकी हमेशा के लिए अपने माता-पिता के घर पर नहीं रह सकती उसे एक-न-एक दिन माता-पिता का घर छोड़ना पड़ता है उसी तरह से मैं इस सच्चाई को जानती थी और इसी वह से मैंने अपने माँ-बाप का घर छोड़ दिया।
मै नदी हूँ | मेरे कितने ही नाम है जैसे नदी , नहर , सरिता , प्रवाहिनी , तटिनी, क्षिप्रा आदि | ये सभी नाम मेरी गति के आधार पर रखे गए है | सर- सर कर चलती रहने के कारण मुझे सरिता कहा जाता है | सतत प्रवाहमयी होने के कारण मुझे प्रवाहिनी कहा गया है | इसी प्रकार दो तटो के बीच में बहने के कारण तटिनी तथा तेज गति से बहने के कारण क्षिप्रा कहलाती हूँ | साधारण रूप में मै नहर या नदी हूँ | मेरा नित्यप्रति का काम है की मै जहाँ भी जाती हूँ वहाँ की धरती , पशु- पक्षी , मनुष्यों व खेत – खलिहानों आदि की प्यार की प्यास बुझा कर उनका ताप हरती हूँ तथा उन्हें हरा- भरा करती रहती हूँ | इसी मेरे जीवन की सार्थकता तथा सफलता है |
आज मै जिस रूप में मैदानी भाग में दिखाई देती हूँ वैसी में सदैव से नही हूँ | प्रारम्भ में तो मै बर्फानी पर्वत शिला की कोख में चुपचाप , अनजान और निर्जीव सी पड़ी रहती थी | कुछ समय पश्चात मै एक शिलाखण्ड के अन्तराल से उत्पन्न होकर मधुर संगीत की स्वर लहरी पर थिरकती हुई आगे बढती गई | जब मै तेजी से आगे बढने पर आई तो रास्ते में मुझे इधर – उधर बिखरे पत्थरों ने , वनस्पतियों , पड़े – पौधों ने रोकना चाहा तो भी मै न रुकी | कई कोशिश करते परन्तु मै अपनी पूरी शक्ति की संचित करके उन्हें पार कर आगे बढ़ जाती |
इस प्रकार पहाडो , जंगलो को पार करती हुई मैदानी इलाके में आ पहुँची | जहाँ – जहाँ से मै गुजरती मेरे आस-पास तट बना दिए गए, क्योकि मेरा विस्तार होता जा रहा था | मैदानी इलाके में मेरे तटो के आस-पास छोटी – बड़ी बस्तियाँ स्थापित होती गई | वही अनेको गाँव बसते गए | मेरे पानी की सहायता से खेती बाड़ी की जाने लगी | लोगो ने अपनी सुविधा की लिए मुझे पर छोटे – बड़े पुल बना लिए | वर्षा के दिनों में तो मेरा रूप बड़ा विकराल हो जाता है |
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