मैं प्रकृति का पुजारी हूं मनुष्य प्रकृति रूप में देखना चाहता हूं जीवन मेरे ही आनंद में कीड़ा है का संदर्भ प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए BA first second semester hindi language
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मैं प्रकृति का पुजारी हूं और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूं, जो प्रसन्न होकर हंसता है, दुखी होकर रोता है और क्रोध में आकर मार डालता है। जो दुःख और सुख दोनों का दमन करते हैं, जो रोने को कमजोरी और हंसने को हलकापन समझते हैं, उनसे मेरा कोई मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनन्दमय क्रीड़ा है,
सप्रसंग व्याख्या ➲ यह पंक्तियां ‘मुंशी प्रेमचंद’ द्वारा रचित उपन्यास ‘गोदान’ से ली गई हैं। यह पंक्तियां गोदान के एक पात्र मेहता जी से एक अन्य पात्र गोविंदी जी से वार्तालाप करते समय कह रहे हैं। इन पंक्तियों के माध्यम से मेहताजी कहना चाहते हैं कि वे प्रकृति का सम्मान करने वाले हैं और मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति के अनुसार जीना चाहते हैं। मनुष्य का एक स्वभाविक मानवीय स्वभाव होता है, ये ही उसकी स्वभाविक आदते कहलाती हैं। वह मनुष्य की स्वाभाविक आदतों को दबाना नहीं चाहते। वे कहते हैं कि जो लोग अपनी स्वाभाविक मानवीय क्रियाओं को दबाते हैं, ऐसे लोग उन्हें पसंद नहीं। मनुष्य अपनी स्वभाविक मानसिक क्रियाओं के अनुसार जिये तभी उसका जीवन में आनंदमय हो सकता है। अपनी मानव सुलभ क्रियाओं को दबाना मनुष्यता नही।
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मै प्राकृतिक का पुजारी हूं और मनुष्य को प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हू जीवन मेरे लिए आनंदमय क्रीड़ा है जंहा कुप्सा ईर्ष्या और जलन के लिए कोई स्थान नहीं मै भूत की चिंता नहीं करता मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ भविष्य की चिंता हमें कायर बना देती है भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है जयानी कहता है होठो पर मुस्कुराहट ना आए आंखो से आंसू ना आए मै कहता हूं अगर