Hindi, asked by suruchikedia91100228, 1 year ago

मेरे जीवन का लक्ष्य पर निबंध - Mere jivan ka lakshya par nibandh in Hindi.

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Answered by bhatiamona
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मेरे जीवन का लक्ष्य पर निबंध

मेरे जीवन का लक्ष्य डॉक्टर बनना है | मैंने तो पहले से ही अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर रखा है। मेरा जीवन में एक ही लक्ष्य है कि मैं बड़ा होकर डॉक्टर बनूंगा। मैं डॉक्टर बनकर देश और समाज की रोगों से रक्षा करूंगा। हमारे गाँव में कोई डॉक्टर नहीं है, जब भी कोई बीमार हो जाता है तो शहर जाना पड़ता है |

शहर बहुत दूर है , बहुत समय लग जाता है |  यह सब देख के बड़ा दुःख होता है | जब यहाँ लोग बीमार हो जाते है तो कोई उन्हें देखने वाला कोई नहीं होता और लोगों को शहर जाना पड़ता है | मैंने सोच लिया मैं बड़े हो कर डॉक्टर बनुगा | डॉक्टर बनकर अपने गाँव में रोगियों की सेवा करना चाहता हूं|

Answered by krish7012
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मानव जीवन का लक्ष्य है समग्रता से खिलना, खुलना और खेलना यानी अपनी उच्चतम संभावना को खोलना। जैसे बगिया का हर फूल पूर्ण रूप से खिलना चाहता है। हर फूल का लक्ष्य होता है कि वह पूर्ण खिले और हवाओं के ज़रिए अपनी ख़ुशबू चारों दिशाओं में फैलाए। उसी तरह समग्रता से जीकर सारे संसार के लिए निमित्त बनना ही मानव जीवन का मूल लक्ष्य है।

इस संसार में रहकर हरेक को पूर्णता से खुलकर, खिलकर, वह करना है जो वह कर सकता है। किसी दूसरे की बराबरी कम से कम तब तक नहीं करनी है, जब तक आप जीवन रूपी सागर में तैरना नहीं सीख जाते। प्रकृति में चमेली का फूल, जूही के फूल के बारे में यह नहीं सोचता है कि ‘मैं जूही का फूल क्यों नहीं हूँ ?’ अत: आप अधिकतम क्या विकास कर सकते हैं और कैसे जीवन के सागर में तैरना सीख सकते हैं, इसे अपने लक्ष्य का पहला क़दम बनाएँ।

मानव जीवन के लक्ष्य के बारे में आज तक लोगों की यही धारणा रही है कि भरपूर धन-दौलत, नाम-शोहरत, मान-इ़ज़्ज़त कमाने में ही मानव जीवन की सार्थकता है। लोगों से यह ग़लती हो जाती है कि वे पैसे को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं। पैसा सुविधा है, मज़बूत रास्ता है मगर मंज़िल नहीं। स़िर्फ करियर बनाना, पैसे इकट्ठे करना, शादी करना, बच्चे पैदा करना, उन बच्चों का करियर बनाना, उनके बच्चों का पालन-पोषण करके मर जाना ही मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है।

इंसान का एक अपना लक्ष्य होता है और एक व्यक्ति लक्ष्य होता है। आजीविका चलाने के लिए अलग-अलग व्यवसाय अपनाना व्यक्ति लक्ष्य है, जैसे डॉक्टर, कारपेंटर, इंजीनियर, चित्रकार, प्रोड्यूसर आदि बनना। लेकिन इसी को परम लक्ष्य मानने की ग़लती अक्सर इंसान से हो जाती है। इंसान का मूल लक्ष्य है मन को ‘अपना’ बनाना यानी अकंप (अ), प्रेमन (प), निर्मल (न) और आज्ञाकारी (आ) बनाना।

जो आप हक़ीक़त में हैं उसे जानना, जीवन का मूल लक्ष्य है। जिसके बारे में आज तक ज़्यादा कहीं बताया नहीं गया है। इसलिए शुरुआत में इस लक्ष्य को समझना थोड़ा कठिन लग सकता है।

‘जीवन का मूल लक्ष्य है स्वयं जीवन को जाने, जीवन अपनी वास्तविकता को प्राप्त होें, स्वअनुभव करे’। यानी जीवन का लक्ष्य है वह स्वअनुभव प्राप्त करना, जिसे आज तक अलग-अलग नामों से जाना गया है, जैसे साक्षी, स्वसाक्षी, अल्लाह, ईश्वर, चैतन्य इत्यादि। वही ज़िंदा चैतन्य हमारे अंदर है, जिस वजह से हमारा शरीर चल रहा है, बोल रहा है, देख रहा है, अलग-अलग तरह की अभिव्यक्ति कर रहा है वरना शरीर तो केवल शव है। हमारे अंदर जो शिव है, वही ज़िंदा तत्व जीवन है, जिसे पाने को ही मानव जीवन का मूल लक्ष्य कहना चाहिए। जब इंसान के शरीर में जीवन अपनी वास्तविकता को प्राप्त होता है, तब उसे आत्मसाक्षात्कार कहते हैं।

जीवन का लक्ष्य ‘जीवन’ है यानी आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना है, अपने आपको जानना है। इसे जानने के लिए और जीवन की अभिव्यक्ति करने के लिए ही आप शरीर के साथ जुड़े हैं।

जब आप जीवन का सही अर्थ जानेंगे तब आपको जीवन होने की कला (आर्ट ऑफ़ बीइंग लाइफ़) समझ में आएगी। इंसान सोचता है कि उसे जीवन जीने की कला सिखाई जाए। मगर अब आपको जीवन जीने की कला नहीं सीखनी है बल्कि जीवन ही बन जाना है यानी अब शरीर से ऊपर उठकर देखना है। अब तक प्रशंसा, आलोचना, व्यंग्य मिलने पर आप यह महसूस करते थे कि यह मेरे साथ हो रहा है। लेकिन यह आपके साथ नहीं हो रहा है, आपके शरीर के साथ हो रहा है। इसी समझ में स्थापित होना जीवन का लक्ष्य है।

भाव, विचार, वाणी और क्रिया के साथ एकरूप होकर जीवन जीना ही समग्रता से जीवन जीना है। दूसरे शब्दों में यह समग्रता प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है।

2. : आत्मसाक्षात्कार और स्वयंस्थिरता प्राप्त अवस्था (स्टैबिलाइजेशन) दोनों में क्या फर्क है?

सरश्री : आत्मसाक्षात्कार यानी सत्य की समझ प्राप्त करना और स्वयंस्थिरता प्राप्त अवस्था (स्टैबिलाइजेशन) यानी उसी सत्य में स्थापित होना। जिसमें स्थापित होने के लिए उसे आंतरिक रूप से धारण करने की आवश्यकता होती है। जब किसी बल्ब का वाट (वॅट) क्षमता कम होती है तब वह बल्ब बिजली को धारण नहीं कर सकता। अगर उस बल्ब को बिजली को धारण करना है तो उसे अपनी वाट क्षमता बढ़ाने की आवश्यकता होती है।

इंसानी शरीर के साथ भी ऐसा ही होता है। इस उदाहरण में बल्ब प्रतीक है इंसान के शरीर का। जब पहली बार इंसान के शरीर में सत्य की समझ प्रकट होती है तब उसे आत्मसाक्षात्कार कहा जा सकता है मगर उस सत्य को सतत् धारण करने के लिए उस शरीर की क्षमता बढ़ाना बहुत आवश्यक होता है। जब शरीर की क्षमता बढ़ती है तभी आगे की स्वयंस्थिरता प्राप्त अवस्था प्रकट हो सकती है।

किसी भी शरीर में यह अवस्था प्रकट होने में मुख्य बाधा है शरीर की गलत वृत्तियाँ। वृत्तियों की वजह से शरीर सत्य को सतत् धारण नहीं कर पाता। किसी भी शरीर में अगर एक भी वृत्ति बच जाती है तो वह उस शरीर को सत्य से दूर लेकर जाती है। इसलिए आत्मसाक्षात्कार के बाद अपनी वृत्तियों पर कार्य करने की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है। जब आप अपनी वृत्तियों पर गहराई से कार्य करेंगे तब स्वत: ही स्वयंस्थिर अवस्था प्रकट होती है।

प्रशिक्षण, शिक्षण और परीक्षण (ट्रेनिंग, टीचिंग ऐंड टेस्टिंग) इन तीनों द्वारा अपनी वृत्तियों पर कार्य करके स्वयंस्थिरता की ओर बढ़ा जा सकता हैै।

3. : आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने के बाद जीवन में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं?

सरश्री : आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने के बाद जीवन में परिवर्तन नहीं, रूपांतरण (ट्रांसफॉर्मेशन) होता है। परिवर्तन यानी बदलाहट (चेंज), ट्रांसफॉर्मेशन यानी जहाँ शिफ्टिंग होती है। उदाहरण के लिए एक इंसान छत पर जाने के लिए सीढ़ी चढ़ता है तो वह पहले पायदान पर होता है, फिर दूसरे पायदान पर जाता है, यह हुई सिर्फ बदलाहट मगर अब भी वह है तो सीढ़ी पर ही। फिर दूसरी सीढ़ी से जब वह तीसरी सीढ़ी पर पहुँचता है तो वहाँ से वह ज़्यादा स्पष्टता से यह देख पाता है कि छत पर छाँव है या धूप है। हालाँकि अब भी वह सीढ़ी पर ही है, इसे कहा गया है परिवर्तन।

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