मीरा के कृष्ण भक्ति पर अपने विचार लिखिए
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मीरा कृष्ण की अनन्य उपासिका थी। भक्ति भावना के आवेश में उन्होंने जिन पदों का गान किया है वे इस तरह से हैं - गीत गोविद की टीका, राग गोविन्द, नृसिंह जी को मायरो। मीरा की भक्ति-भावना माधुर्य भाव की रही है। आध्यात्मिक दृष्टि से वो कृष्ण को अपना पति मानती है।
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ऐसा कहा जाता है कि जब मीराबाई बहुत छोटी थी तो उनकी मां ने हसी हसी में श्रीकृष्ण को यूं ही उनका दूल्हा बता दिया। इस बात को मीराबाई सच मान गई। उन पर इस बात का इतना असर हुआ कि वह श्रीकृष्ण को ही अपना सब कुछ मान बैठी और जीवनभर कृष्ण भक्ति करती रहीं।
जब मीराबाई बड़ी हुई तो उनका विवाह 1516 में राणा सांगा के पुत्र और मेवाड़ के राजकुमार भोजराज के साथ हुआ। हालांकि विवाह हो जाने के बाद भी मीरा की भक्ती श्री कृष्ण के लिए कम नहीं हुई। मीरा के ससुराल पक्ष ने उनकी कृष्ण भक्ति को राजघराने के अनुकूल नहीं माना और समय-समय पर उनपर अत्याचार किए।
मीराबाई की कृष्णभक्ति दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी। मीराबाई के इस कदर श्री कृष्ण भक्ती को देख ससुराल पक्ष में हमेशा मीराबाई के लिए आक्रोश की भावना बनी रहती थी। मीराबाई के प्रती ससुराल पक्ष का क्रध इतना बढ़ गया था कि उन्होने कई बार उन्हे विष देकर मारने की कोशिश की। लेकिन मीरा बाई का श्री कृष्ण प्रेम इस कदर हावी था कि उन्हे कुछ हो ना सका।मीरा के पति भोजराज एक संघर्ष में सन् 1518 में जख्मी हो गए और सन् 1521 में उनकी मृत्यु हो गई। कहां जाता कि पति की मृत्यु के बाद जब उन्हे अपने पति के साथ सती होने को कहा गया तो उन्होने ऐसा करने इंकार कर दिया और समय के साथ साथ मीरा बाई साधु-संतों के साथ भजन कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं।
सन् 1533 में मीरा को ?राव बीरमदेव? ने मेड़ता बुला लिया और मीरा के चित्तौड़ त्याग के अगले साल 1534 में गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया। बाद में मीराबाई ब्रज की तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ीं। कहा जाता है कि मीराबाई सन् 1546 के दौरान द्वारका चली गईं। यहां पर ही वो कृष्ण भक्ति करते-करते अपना जीवन त्याग दिया।