मेरे मकान के आगे चौराहे पर ढाबे के आगे फु टपाथ पर खाना खाने वािे िोग बैठते हैं –
ररक्शेवािे, मजदू र, फे रीवािे, कबाड़ी वािे। आना-जाना िगा ही रहता है । िोग कहते हैं – “आपको बुरा
नहीं िगता? िोग सड़क पर गंदगी फै िा रहे हैं और आप इन्हें बरदाश्त कर रहे हैं? इनके कारण पूरे
मोहल्ले की आबोहवा खराब हो रही है ।” मैं उनकी बातों को हल्के में ही िेता हँ । मुझे पता है ढक र्हाँ जो
िोग जुटते हैं वे गरीब िोग होते हैं।अपने काम-धाम के बीच रोटी खाने चिे आते हैं और खाकर चिे जाते
हैं । र्े आमतौर पर ढबहार से आए गरीब ईमानदार िोग हैं जो हमारे इस पररसर के स्थार्ी सदस्य हो गए हैं
। र्े उन अढशष्ट अमीरों से ढभन्न हैं जो साधारण-सी बात पर भी हंगामा खड़ा कर देते हैं । िोगों के पास
पैसा तो आ गर्ा पर धनी होने का स्वर नहीं आर्ा । अधजि गगरी छिकत जाए की तजय पर इनमें ढदखावे
की भावना उबि खाती है । असि में र्ह ढाबा हमें भी अपने माहौि से जोड़ता है । मैं िेखक हँ तो क्ा
हआ? गाँव के एक सामान्य घर से आर्ा हआ व्यखि हँ । बचपन में गाँव-घरों की गरीबी देखी है और भोगी
भी है। खेतों की ढमट्टी मेंरमा हँ, वह मुझमेंरमी है। आज भी उस ढमट्टी को झाड़झुड कर भिेही शहरी
बनने की कोढशश करता हँ, बन नहीं पाता । वह ढमट्टी बाहर से चाहे न ढदखाई दे, अपनी महक और
रसमर्ता से वह मेरे भीतर बसी हई है । इसीढिए मुझे ढमट्टी से जुड़े र्े तमाम िोग भाते हैं । इस दुढनर्ा में
कहा-सुनी होती है, हाथापाई भी हो जाती है िेढकन कोई ढकसी के प्रढत गाँठ नहीं बाँधता । दुसरे-तीसरे ही
ढदन परस्पर हँसते-बढतर्ाते और एक-दू सरेके दुुःख-ददय में शाढमि होते ढदखाई पड़ते हैं । र्े सभी कभी-
न-कभी एक-दू सरे से िड़ चुके हैं िेढकन कभी प्रतीत नहीं होती ढक र्े िड़ चुके हैं। कि के गुस्से को
अगिे ढदन धुि की तरह झाड़कर फें क देते हैं।
(क) “इस दुढनर्ा में कहा-सुनी होती है” – ‘इस दुढनर्ा’ का संके त है :-
(अ) गाँव से शहर आ बसे गरीब (ब) शहर से गाँव आ बसे मजदू रोंकी दुढनर्ा
(स) िेखक को उकसाने वािा पड़ोस (द) अमीर ढकं तु अढशष्ट िोग
(ख) प्रस्तुत गद्ांश साढहत्य की ढकस ढवधा के अंतगयत आएगा?
(अ) कहानी (ब) जीवनी (स) संस्मरण (द) रेखाढ
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