मीरा ने समाज को क्या चुनौती दी है
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मीरा मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का प्रखर चेहरा थीं. उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी अपने इष्ट देवता, यानी कृष्ण की भक्ति में लगा दी. मीरा की ज़िंदगी कोई आम ज़िंदगी नहीं थी. समर्पण उनकी ज़िंदगी का ज़रूरी पहलू था. फिर भी उनकी ज़िंदगी एक बाग़ी औरत की ज़िंदगी थी. वो उन सारी नैतिक और सामाजिक चीज़ों को ललकारती थीं, जो एक राजपूत महिला में होनी ज़रूरी मानी जाती थीं. और वो भी खासकर एक राजवंशी महिला में.
मध्यकालीन हिंदू समाज में ऊंची जाति वालों ने भक्ति-आराधना करने के जो तरीके निकाले हुए थे, मीरा उन सारे तरीकों को चुनौती देती थीं. फिर भी उनकी इस चुनौती को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी गई. इसके बजाए उनकी गाती हुई छवि फ़ैलाई गई, जिसे दुनिया के तौर-तरीकों की सुध नहीं, जो अपने प्यारे कृष्ण के अलावा कुछ देखना ही नहीं चाहती.
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मीरा’ नाम सुनते ही हमारे दिमाग में एक ही तरह की तस्वीरें आने लगती हैं. ढेर सारे चित्रों में उन्हें एक जवान, सफ़ेद कपड़े पहनी हुई महिला दिखाया गया है. जिनके कंधे पर एक तानपुरा टिका होता है. और वो गाना गाने के पोज़ में होती हैं. अपने हाथों से तानपुरा बजाती हुई मीरा भक्ति में तल्लीन दिखती हैं. इन तस्वीरों के बैकग्राउंड में उनके प्यारे कृष्ण की मूर्ति ज़रूर दिखती है. इन सारी तस्वीरों के अलावा हमारे पास कुछ फ़िल्मी मीरा भी हैं.
मीरा के शुरुआती चित्रण में बहुत ही जवान एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी याद आती हैं. जो ऐसे अलौकिक अंदाज़ में गाती हैं कि ब्लैक एंड वाइट प्रिंट और खराब साउंड क्वालिटी भी उनके आकर्षण को कम नहीं कर पाते. इसके कुछ समय बाद का एक फ़िल्मी वर्ज़न भी है, जिसमें हेमा मालिनी केसरिया रंगों में दिखती हैं, जो सब बाद में सफ़ेद हो जाते हैं. तमाम कोशिशों के बावजूद हेमा मालिनी उस कैरेक्टर में जान न फूंक सकीं
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