Hindi, asked by uttamjat089, 9 months ago

मुंशी प्रेमचंद की अमूल्य कहानी दो बैलों की कथा को अपनी भाषा में लिखिए तथा उसमें छुपे भाव को स्पष्ट कीजिए​

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Answered by manitchauhan812
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Explanation:

झूरी क पास दो बैल थे- हीरा और मोती. देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊंचे. बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था. दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय किया करते थे. एक-दूसरे के मन की बात को कैसे समझा जाता है, हम कह नहीं सकते. अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है. दोनों एक-दूसरे को चाटकर सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे,संयोग की बात, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया. बैलों को क्या मालूम, वे कहाँ भेजे जा रहे हैं. समझे, मालिक ने हमें बेच दिया. अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने, पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दांतों पसीना आ गया. पीछे से हांकता तो दोनों दाएँ-बाँए भागते, पगहिया पकड़कर आगे से खींचता तो दोनों पीछे की ओर जोर लगाते. मारता तो दोनों सींगे नीची करके हुंकारते. अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती तो झूरी से पूछते-तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो ?

हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी. अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था, और काम ले लेते. हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था. हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की. तुमने जो कुछ खिलाया, वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथ क्यों बेंच दिया ?

संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे. दिन-भर के भूखे थे, लेकिन जब नांद में लगाए गए तो एक ने भी उसमें मुंह नहीं डाला. दिल भारी हो रहा था. जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया. यह नया घर, नया गांव, नए आदमी उन्हें बेगाने-से लगते थे.

दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गये. जब गांव में सोता पड़ गया तो दोनों ने जोर मारकर पगहा तुड़ा डाले और घर की तरफ चले. पगहे बहुत मजबूत थे. अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा, पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी. एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं.

झूरी प्रातः काल सो कर उठा तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खड़े हैं. दोनों की गरदनों में आधा-आधा गरांव लटक रहा था. घुटने तक पांव कीचड़ से भरे हैं और दोनों की आंखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है.

झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद हो गया. दौड़कर उन्हें गले लगा लिया. प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था.

घर और गाँव के लड़के जमा हो गए. और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे. गांव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्त्वपूर्ण थी, बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों का अभिनन्दन पत्र देना चाहिए. कोई अपने घर से रोटियां लाया, कोई गुड़, कोई चोकर, कोई भूसी.

एक बालक ने कहा- ''ऐसे बैल किसी के पास न होंगे.''

दूसरे ने समर्थन किया- ''इतनी दूर से दोनों अकेले चले आए.'

तीसरा बोला- 'बैल नहीं हैं वे, उस जन्म के आदमी हैं.'

इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस नहीं हुआ. झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा तो जल उठी. बोली -'कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन वहां काम न किया, भाग खड़े हुए.'

झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका-'नमक हराम क्यों हैं ? चारा-दाना न दिया होगा तो क्या करते ?'

स्त्री ने रोब के साथ कहा-'बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं.'

झूरी ने चिढ़ाया-'चारा मिलता तो क्यों भागते ?'

स्त्री चिढ़ गयी-'भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैल को सहलाते नहीं, खिलाते हैं तो रगड़कर जोतते भी हैं. ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले. अब देखूं कहां से खली और चोकर मिलता है. सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूंगी, खाएं चाहें मरें.'

वही हुआ. मजूर की बड़ी ताकीद की गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाए.

बैलों ने नांद में मुंह डाला तो फीका-फीका, न कोई चिकनाहट, न कोई रस !

क्या खाएं ? आशा-भरी आंखों से द्वार की ओर ताकने लगे. झूरी ने मजूर से कहा-'थोड़ी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे ?'

'मालकिन मुझे मार ही डालेंगी.'

'चुराकर डाल आ.'

'ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे.'

दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला. अबकी उसने दोनों को गाड़ी में जोता.

दो-चार बार मोती ने गाड़ी को खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया. वह ज्यादा सहनशील था.

संध्या-समय घर पहुंचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बांधा और कल की शरारत का मजा चखाया फिर वही सूखा भूसा डाल दिया. अपने दोनों बालों को खली चूनी सब कुछ दी.

दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था. झूरी ने इन्हें फूल की छड़ी से भी छूता था. उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे. यहां मार पड़ी. आहत सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा !

नांद की तरफ आंखें तक न उठाईं.

दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पांव न उठाने की कसम खा ली थी. वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पांव न उठाया. एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डंडे जमाये तो मोती को गुस्सा काबू से बाहर हो गया. हल लेकर भागा. हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाटकर बराबर हो गया. गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होतीं तो दोनों पकड़ाई में न आते.

हीरा ने मूक-भाषा में कहा-भागना व्यर्थ है.'

मोती ने उत्तर दिया-'तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी.'

'अबकी बड़ी मार पड़ेगी.'

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