मातृभूमि कविता का सारांश भेजें
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'मातृभूमि' गुप्तजी की देशप्रेम संबंधी कविता है। इसमें मातृभूमि का गुणगान कवि हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। मातृभूमि का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं – हरी – भरी धरती पर नीला आकाशरूपी वस्त्र सुंदर लग रहा है। सूर्य और चंद्र मातृभूमि के मुकुट के रूप में शोभित है।
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कविता का सारांश
मातृभूमि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का कविता है । इसमें कवि मातृभूमि का वर्णन करता है । कवि को मातृभूमि सर्वेश की सगुन मूर्ति लगती है । सुंदर हरित तट रूपी शरीर पर नीलlकाश रूपी पत्र शोभित है । सूर्य और चंद्र मुकुट और सागर करदनी है । आभूषण के रूप में प्रेम से बहती नदिया , फूल और तारे हैं । सभी चिड़िया बंदीजन है और शेषफन सिहासन है । बादल वर्ष से अभिषेक करते हैं । ऐसे रूप वेष युक्त मातृभूमि पर कवि आत्मसमर्पण करते हैं ।
हे मातृभूमि तू सत्य ही ईश्वर की साकार मूर्ति है । हम तेरे धूल में लोट लोटकर बड़े हुए हैं और घुटनों के बल सरक सरक कर खड़े हुए हैं । हम ने तुझसे परमहंस के समान बाल्यकाल के सब सुख पाए हैं । इसके कारण ही हम धूल भरे हीरे कहलाए । उस प्यारी गोद में हम खुशी से खेलते कूदते आए हैं । इसी प्रकार की हे मातृभूमि , तुझको देखकर हम सब खुशी में मगन क्यों न होते है ? हे मातृभूमि, तुझ से प्राप्त करके ही हमने सभी सुख भोगे है । क्या कभी तेरे उपकार का प्रत्युपकर हमसे होगा ?हमारी देह तुझ से बनी हुई है और तेरे सूरस सार से सनी हुई है । अंत में हमारे अचल शरीर तू ही अपनाएगी और हम तुझ में ही मिल जाएंगे ।