मातहिं पितहिं उरिन भये नीके गुरु ऋण रहा सोच बढ़ जीके मैं कौन सा रस है
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रोद्र रस। क्यूंकि यह पंक्तियां लक्ष्मण जी ने तब कहीं थी जब वह परशुराम जी पर क्रोध जता रहे थे।
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