मोदी कालीन भारतीय विदेश नीति आलोचना समीक्षा कीजिए
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नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ समारोह में सार्क नेताओं को न्योता देकर संकेत दे दिए थे कि उनकी विदेश नीति कैसी हो सकती है। मोदी सार्क देशों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहते हैं। भूटान और नेपाल की यात्रा भी इसी कड़ी का हिस्सा माना जा रहा है। नवाज शरीफ को बुलाकर उन्होंने पाक की ओर दोस्ती का हाथ तो बढ़ाया, लेकिन पाक के साथ विदेश सचिव स्तरीय वार्ता रद्द कर जानकारों को चौंका भी दिया। उन्होंने इससे जाहिर कर दिया कि वे कड़े फैसले भी ले सकते हैं। इसके साथ ही चीन, अमेरिका के साथ संबंधों में समन्वय कायम करना भी उनके लिए बड़ी चुनौती होगी। हालांकि यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि एनडीए सरकार की विदेश नीति का ऊंट किस करवट बैठेगा।
जब हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति के निर्धारण की बात करते हैं तो हमें पंडित जवाहर लाल नेहरू की संसद में कही इस बात पर गौर कर लेना चाहिए। उनका कहना था- 'अंतत: विदेश नीति आर्थिक नीति का परिणाम होती है। हमने अब तक कोई रचनात्मक आर्थिक योजना अथवा आर्थिक नीति नहीं बनाई है....जब हम ऐसा कर लेंगे....तब ही हम इस सदन में होने वाले सभी भाषणों से ज्यादा अपनी विदेश नीति को निर्धारित कर पाएंगे।' इससे एक महत्वपूर्ण बिंदु का संकेत मिलता है कि भारत की विदेश नीति, हमारे देश की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। इसकी विशेषता एक निरंतरता है और इसमें किसी भी समय पर आमूलचूल परिवर्तन (रैडिकल चेंजेस) देखने को नहीं मिलते हैं।
आमूलचूल परिवर्तन नहीं : अगर हम आधुनिक भारत के इतिहास पर सरसरी निगाह डालें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि मात्र सरकारें बदलने से भारत की विदेश नीति की व्यापक रूपरेखा या ढांचे में कभी भी बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है। इसलिए हम एक प्रश्न पर विचार कर सकते हैं कि भारत की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य परंपरागत रूप से क्या रहा है? इसका सीधा सा अर्थ है कि भारत एक सुरक्षित और स्थिर क्षेत्रीय पर्यावरण चाहता है क्योंकि इसके बिना भारतीय जनता की निरंतर आर्थिक वृद्धि को ऊपर ले जाना संभव नहीं होगा। इसलिए स्वतंत्रता के बाद से ही भारत सरकार का यह प्रथम उद्देश्य रहा है और तब से ही यह भारत की विदेश नीति का मूलाधार रहा है।
लेकिन, पिछले दो दशक के दौरान भारत की बढ़ती आर्थिक और सैन्य ताकत के चलते देश की सरकारों ने विदेश नीति को नया आकार देने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। पर इसके साथ यह भी देखा गया है कि पूर्ववर्ती यूपीए शासन के दौरान विदेश नीति को अप्रभावी रूप में भी पाया गया है और बाहरी सुरक्षा चुनौतियों का माकूल जवाब नहीं दिया गया है। वर्ष 2014 के आम चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और इसके नेता नरेन्द्र मोदी ने देश की सत्ता संभाली। भारत की समूची विदेश नीति में जहां कुछ बदलावों की उम्मीद की जा सकती है तो भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा था कि देश की सरकार सदियों पुरानी अपनी 'वसुधैव कुटुम्बकम' की परम्परा के जरिए कुछ बदलावों को लाने की कोशिश करेगी।
भाजपा के घोषणा पत्र में कहा गया था कि भारत को अपने सहयोगियों का एक संजाल (नेटवर्क) विकसित करना चाहिए। आतंकवाद को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति होगी और क्षेत्र में नए भू-सामरिक खतरों का सामना करने के लिए 'नो फर्स्ट यूज' (पहले हमला न करने की) परमाणु नीति की समीक्षा होगी। मोदी को जितना बहुमत मिला है, लोगों की उनसे उतनी ही ज्यादा उम्मीदें हैं। भाजपा का पिछला रिकॉर्ड और मोदी के आर्थिक मोर्चे पर काम करने वाले नेता और एक कट्टरपंथी राष्ट्रवादी छवि के चलते देश के लोग अधिक सक्रिय विदेश नीति की लोग उम्मीद करते हैं।
पर मोदी के नेतृत्व में भारत को पता है कि केवल स्थायी और ऊंची आर्थिक वृद्धि दर के बल पर भारत, चीन के साथ एशिया के पॉवर गैप को भर सकता है। इस अर्थ यह भी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था से भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और घटिया बुनियादी सुविधाओं को समाप्त करना ही होगा। इस बात की संभावना है कि भारत, रूस के साथ मजबूत संबंध बनाए रखना चाहेगा। नई दिल्ली और मॉस्को के बीच सहयोग का एक लम्बा इतिहास रहा है, जो कि शीत युद्ध के शुरूआती वर्षों से शुरू हुआ था।