Hindi, asked by soumyakottekkad, 8 months ago

मनुष्य पशु से भी हीन क्यों है ?

Answers

Answered by shubhambarik2006
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Explanation:

एक दिन एक संस्कृत श्लोक पढने को मिला जिसमे उपर लिखे प्रश्न का उत्तर था. वो श्लोक इस प्रकार से है-

आहार, निंद्रा भय मैथुनं च

सामान्य एतत पशुभि नरानाम,

धर्मो हि तेषाम अधिको विशेष

धर्में हीन पशुभि समानः ………

अनुवाद बड़ा सरल है कि मनुष्य और पशु में जो समानता है वो हैं भोजन करना , सोना, अपने प्राणों के लिए भयभीत रहना और अपने वंश की वृद्धि करना . किन्तु जो विशेष गुण मनुष्य को पशुओं से अलग करता है वो है ” धर्म का पालन” और धर्म को धारण

किये बिना मनुष्य पशु के सामान है.

यहाँ धर्म का अर्थ

संकुचित नहीं अपितु व्यापक है. आमतौर पर धर्म को पूजा या उपासना पद्धति से जोड़कर देखा जाता है किन्तु धर्म इन सबसे भी व्यापक है. पूजा या उपासना पद्धति धर्म का एक उप समुच्चय है . धर्म तो जीवन को सही तरीके से जीने का आधार है.

महर्षि वेद व्यास जी ने परोपकार को ही सर्वोत्तम धर्म बताया . महात्मा बुद्धा जी ने दया और क्षमा को धर्म बताया . स्वामी विवेकानंद जी ने दरिद्र नारायण कि सेवा को धर्म बताया. इसी प्रकार अनेकों महापुरुषों ने धर्म को अनेको तरह से समझाया किन्तु सबके विचार का मूल आधार परमार्थ कि सिद्धि ही था .

अर्थात मनुष्य होने कि पहली और अनिवार्य शर्त है कि हमें केवल अपने लिए नहीं बल्कि औरों के लिए भी जीना होगा

Answered by PixleyPanda
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Answer:

Explanation:

संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध ग्रंथ “शतकत्रयम्” के रचयिता भर्तृहरि के बारे में दो-चार शब्द इसी चिटठे में मैंने पहले कभी लिखे हैं । (देखें 25 जनवरी 2009 की प्रविष्टि ।)

उक्त ग्रंथ का एक खंड है नीतिशतकम् जिसमें नीति संबंधी लगभग 100 छंद हैं । इन्हीं में से दो चुने हुए श्लोक मैं आगे प्रस्तुत कर रहा हूं । इन श्लोकों में रचनाकार ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि साहित्य, संगीत आदि से वंचित मनुष्य किसी पशु से भिन्न नहीं रह जाता है । उसका जीवन किसी चौपाये के जीवन से बहुत अलग नहीं दिखाई देता है ।

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