Hindi, asked by lucyjolucyjo7207, 5 months ago

मनुष्य वाही है जो मनुष्य के लिए मरे ""story

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Answered by chocolategirl007
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मनुष्य एवं उसकी मनुष्यता का न तो कोई मूल्य है और न जवाब ही है अथवा हो सकता है। यह भी एक सर्वमान्य तथ्य है कि मनुष्य ही मनुष्य के काम आया करता या फिर आ सकता है। ऐसा भी उचित ही माना और कहा जाता है कि मात्र अपने लिए तो केवल पशु-पक्षी ही जिया करते हैं। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य न तो अकेला रह सकता है, न खा-पी और जी सकता है। उसे अपने ही सुख-शान्ति के लिए अपने जैसे अन्य प्राणियों यानि मनुष्यों का सहारा लेना जरूरी हो जाता है। इसी प्रकार की बातों के आलोक में ही कवि ने सच्ची मनुष्यता की परिभाषा करते समय यह उचित धारणा प्रकट की है कि-“मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।”

अर्थात् सच्चा मनुष्य जैसे अपने और अपनों के लिए जीवित रहना, जीवित रहने के तरह-तरह के उपाय खोजना और करना जानता है; वहाँ वह उसकी खातिर, उसके बकरा यानि स्वाभिमान-स्वत्व की रक्षा के लिए मरना अर्थात् त्याग और बलिदान करना भी जानता है। ऐसा जानने-करने वालों को ही सूक्तिकार कवि ने सच्चा या वास्तविक मनुष्य कहा है। यहाँ मरने या त्याग-बलिदान करने से सूक्तिकार कवि का अभिप्राय प्राण त्याग देने से नहीं है, बल्कि उस भावनागत प्रक्रिया से है कि जो मानवता के सुख-दुःख को साँझा बना कर, सभी मनुष्यों को आपस में जोड़ा करती है। एक को दूसरे मनुष्य की हर सम्भव सहायता करने के लिए तत्पर रहने की प्रेरणा प्रदान किया करती है। वस्तुतः सत्य तो यह है कि उस भावना का जागृत बने रहना ही मनुष्यता की उचित एवं सार्थक परिभाषा है। कवि ने अपनी सूक्ति में प्रत्येक मनुष्य को हमेशा इसी भावना को अपने हृदय में, अपने व्यवहार और कार्य-व्यापार में जगाए रखने की उदात प्रेरणा प्रदान की है।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहता आया और आगे भी उसे यहीं बने रहना है। एक-दूसरे के काम आना ही सामाजिकता का स्वरूप एवं परिभाषा है। आज तक जीवन समाज, सभ्यता-संस्कृति, साहित्य-कला, ज्ञान-विज्ञान आदि ने जो इतनी प्रगति और विकास किया है, वह किसी एक मनुष्य के कारण नहीं हुआ है। इसके पीछे मनुष्यों की एक-दूसरों के लिए कछ करने की भावना ही सक्रिय रही है। वही भावना कि जो व्यक्ति को किसी सदुद्देश्य की पूर्ति के लिए बड़े-से-बड़ा त्याग करने को तत्पर रहा करती है। यदि मनुष्य अपने जीने मरने को, अपने सुख-दुःख को मात्र अपने तक ही सीमित किए रहता, तो आज की उन्नत-विकसित

स्थिति तक की यात्रा कभी भी सम्भव न हो पाती। न समाज बन पाते, न देश और न राष्ट्र। इनके निर्माण की सारी सम्भावनाओं का आधार ही एक-दसरे के लिए कुछ कर गुजरने की भावना है।

किसान खेतों में अपना खून-पसीना बहाता है, किस लिए? जवान सीमांचलों पर पहरा देते हुए अपना यौवन, अपना जीवन गला देता है, किस लिए? अन्य तरह-तरह के लोग जो तरह-तरह क धन्ध किया करते हैं, किस लिए? क्या महज अपने और अपने परिवार के लिए? निश्चय ही इन के लिए भी वह सब कुछ करता है: पर महज इन के लिए ही नहीं किया करता। उसके पीछे बाकी सभी की आवश्यकता पूर्ति एवं सुरक्षा का भाव भी अन्तर्हित रहा करता है। वह भाव भी वस्तुतः मनुष्य का मनुष्य के लिए मरने का भाव है। सभी को अन्न-जल मिले, सभी की जरूरतें पूरी हों, सभी की सुरक्षा संभव हो सके, वही वह मनुष्यता का चिरन्तन भाव है, जो मनुष्यों को अपने लिए नहीं औरों के लिए भी जीना-मरना सिखाया करता है। जब तक यह भाव जीवित है, तभी तक मनुष्य एवं उसकी मनष्यता भी जीवित है, इसमें तनिक-सा भी सन्देह नहीं।

पुराण-इतिहास में इस तरह के सैंकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं कि जब मनुष्यों ने मानवता की रक्षा के लिए अपने घर-परिवार, सुख-सम्पत्ति आदि सभी कुछ को दाँव पर लगा दिया। स्वयं भूखों रहना पड़ा, ज़मीन पर सोना और वनों में मारा-मारा फिरना पड़ा; पर मनुष्यता पर, रत्ती भर भी आँच नहीं आने दी। महान् मानवीय मूल्यों की रक्षा करने के कारण, स्वयं त्याग-तपस्या की राह पर चल कर भी मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने के कारण ही राम मर्यादा पुरुषोत्तम हो गए। भगतसिंह शहीदे आजम कहलाने लगे। गान्धी राष्ट्रपिता कहलाए और जयप्रकाशनारायण लोकनायक जैसा महत्त्वपूर्ण पद अर्जित कर सके। महाराणा प्रताप ने महामानव का पद भी उदात मानवीयता के पथ पर समर्पित होकर ही अर्जित किया था। जिस किसी ने भी मानवीय-मूल्यों की रक्षा की, उसी को मानव एवं उसके इतिहास ने सर- आँखों पर बिठा कर अमरत्व प्रदान कर दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि मानव-हिताय मरण भी व्यर्थ न जा कर सार्थक हुआ करता है। उस से मरने वाले के साथ-साथ मानवता का मस्तक भी गर्व और गौरव से उन्नत हुआ करता है। इसलिए व्यक्ति को स्वार्थ-त्याग के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए।

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