मनोविज्ञान के विकास का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत कीजिए।
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भारतीय मनोविज्ञान भारत में अति प्राचीन काल से आज तक हुए मनोवैज्ञानिक अध्ययनों और अनुसंधानों का समग्र रूप है।'भारतीय' कहने से यही तात्पर्य है कि भारतीय संस्कृति की पृष्टभूमि में जिस मनोविज्ञान का विकास हुआ वह इस क्षेत्र में भारत का विशेष योगदान माना जा सकता है।
मनोविज्ञान के विकास का संक्षिप्त रूप
मनोविज्ञान के विकास का इतिहास बड़ा ही संक्षिप्त है। आधुनिक युग में मनोविज्ञान का औपचारिक आरंभ 1879 से माना जाता है। जब जर्मनी में एक वैज्ञानिक विलियम्स ने मनोविज्ञान की पहली प्रयोगशाला को स्थापना की थी। कालांतर में एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने कैंब्रिज, मैसाचुसेट्स में एक प्रयोगशाला की स्थापना की थी।
जिसमें मानव मन के अध्ययन हेतु प्रकार्यवादी उपागम का विकास किया गया था। विलियम जेम्स के मतानुसार मन की संरचना पर ध्यान देने के अतिरिक्त मनोविज्ञान के अध्ययन में इस बात पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए कि मन क्या करता है तथा मन का व्यवहार व्यक्ति को अपने आसपास के वातावरण से निपटने में किस तरह से कार्य करता है। जैसे कि मानव का व्यवहार उसकी जरूरतों को पूरा करने योग्य किस तरह से बनाता है।
प्रकार्यवादियों ने इस तथ्य पर बहुत ज्यादा ध्यान केंद्रित किया। जबकि विलियम जेम्स के अनुसार वातावरण से अंतः क्रिया करने वाली प्रक्रियाओं की धारा के रूप में चेतना ही मनोविज्ञान का मूल स्वरूप स्थापित करती है। जब बीसवीं सदी का आरंभ हुआ तो एक नई विचारधारा ने जन्म लिया। जिसका प्रतिपादन जर्मनी गेस्टाल्ट मनोविज्ञान की विचारधारा थी जो वुण्ट की विचारधारा के विपरीत थी आई थी। इसमें प्रत्यक्ष रूप से किए गए अनुभवों के संगठनों को अभिन्न अंग माना गया। दू
सरे शब्दों में इस विचारधारा के अंतर्गत व्यक्ति जो अनुभव करता है, वह वातावरण से प्राप्त आगतों से ज्यादा होता है। उदाहरण के लिये जब चमकता सूर्य का प्रकाश व्यक्ति के दृष्टि पटल पर पड़ता है तो व्यक्ति को प्रकाश की गति का अनुभव होता है। हम चलचित्र के देखते हैं तो तेजी भागते स्थिर चित्र हमारे दृष्टिपटल पर पड़ते हैं, तो हमें एक चलायमान चित्र का अनुभव होता है। ये प्रत्यक्ष अनुभवों से अधिक होता है। गेस्टाल्ट के अनुसार अनुभव समग्रतावादी होता है।
जैसे-जैसे मनोविज्ञान का विकास होता क्या है तो संरचनावाद की प्रतिक्रिया स्वरूप एक और धारा व्यवहार वाद के रूप में सामने आई। सन 1910 में जॉन वाटसन ने मन एवं चेतना को मनोविज्ञान के केंद्रीय विषय के रूप में स्वीकार नहीं किया था बल्कि वे दैहिक शास्त्री इवान पाललव के प्राचीन अनुबंधन वाले कार्य से ज्यादा प्रभावित थे। वाटसन का मानना था कि मन प्रेक्षणीय नहीं है और अंतरनिरीक्षण व्यक्ति परक है क्योंकि इसका सत्यापन किसी दूसरे प्रेक्षक द्वारा नहीं किया जा सकता।
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