यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था- 'लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है? इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा था- 'समाज और संसार में दया ही श्रेष्ठ धर्म है।' अगर अपने से दीन-हीन, असहाय, अभावग्रस्त, आश्रित, वृद्ध, विकलांग, जरूरतमंद व्यक्ति पर दया दिखाते हुए उसकी सेवा और सहायता न की जाए, तो समाज भला कैसे उन्नति करेगा? सच तो यह है कि सेवा ही असल में मानव जीवन का सौंदर्य और शृंगार है। सेवा न केवल मानव जीवन की शोभा है, अपितु यह भगवान की सच्ची पूजा भी है। भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी पिलाना, विद्यारहितों को विद्या देना ही सच्ची मानवता है। सेवा से मिलता मेवा: दूसरों की सेवा से हमें पुण्य मिलता है- यह सही है, पर इससे तो हमें भी संतोष और असीम शांति प्राप्त होती है। परोपकार एक ऐसी भावना है, जिससे दूसरों का तो भला होता है, खुद को भी आत्म-संतोष मिलता है। मानव प्रकृ ति भी यही है कि जब वह इस प्रकार की किसी उचित व उत्तम दिशा में आगे बढ़ता है और इससे उसे जो उपलब्धि प्राप्त होती है, उससे उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। सौ हाथों से कमाएं, हजार हाथों से दान दें: अथर्व वेद में कहा गया है 'शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त सं किर'। अर्थात् हे मानव, तू सैकड़ों हाथों से कमा और हजारों हाथों से दान कर। प्रकृति भी मनुष्य को कदम-कदम पर परोपकार की यही शिक्षा देती है। हमें प्रसन्न रखने और सुख देने के लिए फलों से लदे पेड़ अपनी समृद्धि लुटा देते हैं। पेड़-पौधे, जीव-जंतु उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं और मानव का जितना भी उपकार कर सकते हैं, करते हैं तथा बाद में प्रकृति में लीन हो जाते हैं। उनके ऐसे व्यवहार से ऐसा लगता है कि इनका अस्तित्व ही दूसरों के लिए सुख-साधन जुटाने के लिए हुआ हो। सूर्य धूप का अपना कोष लुटा देता है और बदले में कुछ नहीं मांगता। चंद्रमा अपनी शीतल चांदनी से रात्रि को सुशोभित करता है। शांति की ओस टपकाता है और वह भी बिना कुछ मांगे व बिना किसी भेदभाव के। प्रकृति बिना किसी अपेक्षा के अपने कार्य में लगी है और इससे संसार-चक्र चल रहा है। दया है धर्म, परपीड़ा है पाप: दूसरों के साथ दयालुता का दृष्टिकोण अपनाने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। इसी तरह अगर किसी को अकारण दुख दिया जाता है और उसे पीड़ा पहुंचाई जाती है, तो इसके समान कोई पाप नहीं है। ऋषि-मुनियों ने बार-बार कहा है कि धरती पर जन्म लेना उसी का सार्थक है, जो प्रकृति की भांति दूसरों की भलाई करने में प्रसन्नता का अनुभव करे। एक श्रेष्ठ मानव के लिए सिर्फ परोपकार करना ही काफी नहीं है, बल्कि इसके साथ-साथ देश और समाज की भलाई करना भी उसका धर्म है। बेशक, आज के युग में भी कुछ ऐसे लोग हैं, जो अपने सुखों को छोड़कर दूसरों की भलाई करने में और दूसरों का जीवन बचाने में अपना जीवन होम कर रहे हैं, पर साथ ही, कुछ ऐसे अभागे इंसान भी हैं, जिन्हें आतंक और अशांति फैलाने में आनंद की अनुभूति होती है। ऐसे लोग मानव होते हुए भी क्या कुछ खो रहे हैं, इसका उन्हें अहसास नहीं है। सबका हित, अपना हित: गीता (12.4) में लिखा है, 'जो सब प्राणियों का हित करने में लगे हैं, वे मुझे ही प्राप्त करते हैं।' विद्वान लोग विद्या देकर, वैद्य और डॉक्टर रोगियों की चिकित्सा करके, धनी व्यक्ति निर्धनों की सहायता करके तथा शेष लोग अपने प्रत्येक कार्य से सभी का हित करें, तो धरती पर मौजूदा सभी प्राणियों का भला हो सकता है। यही सच्ची भक्ति है। 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय'- इस भाव को अपनाकर ही देश और समाज का भला हो सकता है। चाणक्य ने कहा था- 'परोपकार ही जीवन है। जिस शरीर से धर्म नहीं हुआ, यज्ञ न हुआ और परोपकार न हो सका, उस शरीर का क्या लाभ?' सेवा या परोपकार की भावना चाहे देश के प्रति हो या किसी व्यक्ति के प्रति, वह मानवता है। इसलिए हर व्यक्ति को यह समझना होगा कि परोपकार से ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।