mata ka aanchal summary
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MATA KA AANCHAL
इस पाठ के सार में लेखक ने शैशव-काल के शैशवीय क्रिया-कलापों को रेखांकित किया है, जिसमें माता-पिता के स्नेह, शिशु मण्डली द्वारा मिल-जुलकर खेले जाने वाले खेलों को उद्धृत किया है। लेखक ने स्पष्ट किया है कि शिशु का पिता उसके साथ भले ही अधिक समय बीतता हो, दोनों भले ही एक-दूसरे के साथ अत्यधिक स्नेह करते हों, किन्तु आपदाओं में माँ के अंचल में ही शिशु को शरण मिलती है। ऐसे समय में पिता से अधिक माता की गोद प्रिय और रक्षा करने में समर्थ प्रतीत होती है।
लेखक बचपन से ही अपने पिता जी के साथ अधिक रहते थे। अपनी माता जी के साथ उनका दूध पीने तक का ही सम्बन्ध था। जब पिताजी नहा-धोकर पूजा करने बैठते, तब साथ ही लेखक को भी नहला-धुलाकर अपने साथ पूजा में बैठा लेते थे। लेखक के माथे पर भभूत का तिलक लगा देते। उनके सिर पर तो लम्बी-लम्बी जटाएँ तो थीं, उस पर भभूत का तिलक लगा देने से लेखक बम-भोला बन जाया करते थे। पिताजी लेखक को प्यार से भोलानाथ कहकर पुकारा करते थे। जबकि मेरा नाम तारकेश्वर नाथ था। मैं (लेखक) पिताजी को बाबूजी और माँ को मइया कहकर पुकारता था। पिताजी रामायण का पाठ करते थे तो मैं उनके पास बैठा आइने में अपना मुँह निहारा करता था। पिताजी के देखने पर शर्माकर आइना को नीचे रख देता और यह देखकर पिताजी मुस्करा देते थे।
पिताजी पूजा पाठ के बाद अपनी एक ‘रामनामा बही’ में राम-राम लिखतेथे। इसके बाद कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों पर राम-नाम लिखकर और उन्हें आटे की गोलियों में लपेट देते थे। इसके बाद गंगा जी के तट पर जाकर आटे की एक-एक गोली फेंककर मछलियों को खिलाते थे। उस समय मैं उनके कन्धे पर बैठा होता था। पिताजी की गोली फेंक मैं हँसा करता था। गंगा से जब लौटते तो पिताजी रास्ते में झुके पेड़ों की डालों पर बैठाकर (लेखक को) झूला झुलाते थे। कभी-कभी हमसे कुश्ती लड़ते थे और खुद नीचे गिर जाते थे और मैं उनकी छाती पर चढ़कर उनकी मँछे उखाड़ने लगता था। मूंछे छुड़ाकर हँसते हुए चूम लेते थे। मुझसे खट्टा-मीठा चुम्मा माँगते थे। मैं उनके सामने अपने गाल कर देता था। एक खट्टा चुम्मा दूसरा मीठा चुम्मा लेते तो मूँछे गड़ा देते थे। मैं झुंझला पड़ता था और पिताजी बनावटी रोना रोते थे और मैं खिल-खिलाकर हँसने लग जाता था।
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