media ka jeevan mein prabhav kya hai?????
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इन दिनों बढ़ती हिंसा, अपराध और आत्महत्या के किस्से समाज के लिए सिरदर्द बने हैं। आज आदमी के पास जितना है उससे वह संतुष्ट नहीं है। वह, उतना सबकुछ तुरंत पा लेना चाहता है जितना ना तो उसके बस में है, ना ही व्यावहारिक रूप से संभव। बदलते दौर का बदलता (बिगड़ता) मीडिया इस हालात के लिए समान रूप से जिम्मेदार है।
विज्ञापन
लगातार प्रसारित विज्ञापन यह मानने पर बाध्य करते हैं कि अगर फलाँ वस्तु आपके पास नहीं है तो आप दुनिया के सबसे हीन, सबसे दयनीय और बेकार इंसान है। अपनी वस्तु बेचने के लिए यह एक आदर्श नीति हो सकती है लेकिन यह नीति आम आदमी में कुत्सित प्रतिस्पर्धा को जन्म दे रही है इस पर विचारकौन करेगा?
धारावाहिक
वहीं दूसरी और हर चैनल के धारावाहिकों में प्यार और पैसा खेलने की चीज हो गए हैं। जहाँ नकली नाटकों में करोड़ों रुपयों की बातें, आलीशान महल, महँगे जेवरात, कीमती परिधान ऐसे दिखाए जाते हैं मानो यही हमारे भारत का सच है शेष गरीब लोग तो किसी दूसरे ग्रह से आए हैं। किसी भी चैनल पर गरीब भी गरीब नहीं लगता ऐसे में जो वास्तव में गरीब है वह भला क्यों गरीब दिखे? उसका 'माइंड सेट' भी यही चैनल तय करते हैं।
रियलिटी शो
बचाखुचा जहर रियलिटी शो परोस रहे हैं। यहाँ लाखों-करोड़ों रुपए देने की ऐसी बंदरबाँट मची है कि हर आम और खास के मुँह में पानी है कि काश, यह रुपया उसे मिल जाता। व्यावहारिक तौर पर यह संभव ही नहीं है, फिर क्यों ऐसे चमकदार सपनों के बीज कोरी आँखों में बोए जा रहे हैं? यह बीज एक कमजोर नस्ल को तैयार कर रहे हैं जो हालात से जूझना नहीं जानती। एक ऐसी पीढ़ी जो मामूली संकट पर दम तोड़ देती है। यहाँ एक ऐसे हंटर की आवश्यकता है जो चैनलों के काल्पनिक संसार को लगाम लगा सके।
भला अब आप ही बताएँ कि मीडिया को दोषी क्यों ना ठहराया जाए? यह ठीक है कि हर बात का जवाबदेह मीडिया नहीं है लेकिन काफी हद तक वह ही जिम्मेदार है क्योंकि अन्य क्षेत्रों की तुलना में उसकी समाज और युवा पीढ़ी के प्रति जिम्मेदारी अधिक गंभीर और बड़ी है।
मीडिया का प्रभाव दिल और दिमाग पर सबसे जल्दी पड़ता है, सीधा पड़ता है, काफी गहरा होता है और देर तक रहता है। ऐसे में मीडिया ही बदलते दौर में समझदारी से भूमिका निभा सकता है़ जो वह नहीं निभा रहा है, या कहें कि निभाना नहीं चाह रहा है। आपको क्या लगता है?
THEEAGLEAKS:
THANK YOU
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