निबंध-यदि मैं अध्यaपक होता
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भूमिका- यदि मैं अध्यापक होता तो कक्षा में मेरी स्थिति वही होती जो मस्तिष्क की शरीर में, इंजन की रेलगाड़ी में तथा पंखे की वायुयान में होती है। मुझे अध्यापन कार्य तथा छात्रों का दिशा बोध करना पड़ता। निस्संदेह मेरा काम काफ़ी जटिल होता और कठिनाइयाँ तथा चुनौतियाँ पग-पग पर मेरे रास्ते में रुकावटें डालती हुई दिखाई देतीं। लेकिन मैं अपने कदम आगे की ओर ही बढ़ाता जाता।
अनुशासन का ध्यान– यदि मैं अध्यापक होता तो सबसे पहले अनुशासन स्थापित करता क्योंकि अनुशासन राष्ट्र की नींव होती है। मैं विद्यालय में अनुशासन स्थापित करने की योजना बनाता। मैं यह भली प्रकार से जानता हूँ कि विद्यार्थी अनुशासन को तभी भंग करते हैं जब उनकी इच्छाएँ अधूरी रह जाती हैं। मैं विद्यालय के अनेक कायाँ में विद्यालयों का सहयोग प्राप्त करता। मैं उन्हें सहकारी समिति बनाने के लिए कहता। वे अपने चुनाव करते और देर से आने वाले विद्यार्थियों के लिए स्वयं ही दंड विधान करते। इस प्रकार वे स्वयं को विद्यालय का अंग मानने लगते तथा ऐसे करके मैं अनुशासन स्थापित करने में सफल हो जाता।
आत्मविश्वास की भावना– यदि मैं अध्यापक होता तो मैं छात्रों की कठिनाइयों का पता लगाता। मैं सहयोगी अध्यापकों से पूछता कि वे किस प्रकार आदर्श शिक्षा देना चाहते हैं ? इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मैं अपनी नीति का ऐसा स्वरूप निश्चित करता जिसमें विद्यार्थी प्रसन्न रहते। इससे उनमें आत्म-विश्वास तथा संतोष की भावना दृढ़ होती है।
आदर्श नागरिक बनने की शिक्षा- मैं जानता हूँ कि आज के बालक कल के नेता होते हैं। अत: राष्ट्र तभी उन्नति कर सकता है जब विद्यालय के बालकों को अच्छी शिक्षा दी जाए। उन्हें राष्ट्र के नेता बनाने के लिए उनके बाल्य जीवन से ही नेतृत्व के गुणों का विकास करना अति आवश्यक है। मैं उनकों आदर्श नागरिक बनने की शिक्षा देता ताकि राष्ट्र उनके नेतृत्व से लाभ उठा सकता।
अपना आदर्श प्रस्तुत करना- मैं उपदेश देश की बजाय अपना आदर्श प्रस्तुत करने पर बल देता। मैं दूसरों को कुछ नहीं कहता और उनकों स्वयं कुछ करके दिखाता। अन्य अध्यापक भी मुझ से प्रेरित होकर कर्मशील हो जाते। चूंकि बालकों में अनुकरण की प्रवृत्ति होती है अत: वे मुझे और अध्यापकों को कार्य में लगे देखकर प्रेरित होते।
उपसंहार- मैं छात्रों के साथ मित्रता का व्यवहार करता। किसी पर भी अनुचित दबाव न डालता। काश ! मैं अध्यापक होता और अपने स्वप्नों को साकार रूप देता।
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Explanation:
यदि मैं अध्यापक होता पर निबंध। Yadi mein Adhyapak hota
रात्रि को सोने से पूर्व मैं किसी धार्मिक पुस्तक का अध्ययन अवश्य करता हूं। इससे नींद में बुरे विचार और खराब सपने नहीं आते। आज महर्षि अरविंद के विचार नामक पुस्तक पढ़ रहा था। उन्होंने अध्यापक के संबंध में लिखा है अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच कर महाप्राण शक्तियां बनाते हैं।
महर्षि अरविंद के इन विचारों को पढ़कर उपर्युक्त अंग्रेजी अध्यापक की महत्ता साबित हो गई। अपने स्वार्थवश छात्रों को अनुतीर्ण कर हतोत्साहित करना और फिर ट्यूशन के लिए प्रेरित करना वर्तमान अध्यापकों के जीवन की भूमिका है। इसी क्रम में अनेक विचार मन में उठते रहे और इसी अंतर्द्वंद में एक विचार भी हृदय में जागृत हुआ कि मैं अध्यापक बनूंगा। कितनी अच्छी कल्पना है। यदि मैं अध्यापक होता तो अंग्रेजी अध्यापक के समान धन लोभ के कारण छात्रों से अनुचित व्यवहार ना करता। अर्धवार्षिक परीक्षा में छात्रों को असफल कर ट्यूशन रखने का अर्थ अपने कर्तव्य की अवहेलना है। यदि मैं अध्यापक होता तो मैं अपने कर्तव्य के प्रति हमेशा जागरुक रहता।
अंग्रेजी विदेशी भाषा है। इसको पढ़ाने के लिए मैं अत्यंत सावधानी और परिश्रम से काम लेता। पाठ पढ़ाते हुए पहले पाठ के एक अनुच्छेद कक्षा में दो से तीन बार उच्चारण करवाता। फिर उस अनुच्छेद का आशय छात्रों को समझाता। एक-एक वाक्य का अर्थ करते हुए अनुच्छेद की पूर्णता मेरी पद्धति नहीं होती बल्कि एक शब्द को लेता एक-एक शब्द का अर्थ विद्यार्थियों से पूछता। जो उन्हें नहीं आता वह बताता और आदेश देता कि वे अपनी कॉपी पर साथ-साथ लिखते चले। एक एक शब्द के पश्चात वाक्य का शब्दार्थ करते हुए किया भावपूर्ण अर्थ बताता। जो छात्र कॉपी में लिखना चाहते हैं उन्हें लिखने का अवसर देता। एक अनुच्छेद में यदि एक बार एक शब्द आता तो मैं यथास्थान बार-बार उसका अर्थ दोहराता। अनुच्छेद समाप्ति पर उसमें आए वचन, लिंग तथा क्रिया संबंधी रूपों को स्पष्ट करता हुआ डायरेक्ट इनडायरेक्ट भी समझाता।
उसके बाद जो पाठ जितना भी पढ़ाया है उसके अर्थ तथा वाक्यों का अनुवाद लिखकर लाने का आदेश देता। बच्चों को निर्देश देता कि वह पाठ के उन्हीं शब्दों के अर्थ लिखकर लाएं जो उन्हें कठिन लगते हैं अनुवाद में सरलता ही नहीं उन का अनुवाद भी समझाता।
सप्ताह का एक दिन निबंध पत्र के लिए निश्चित करता। जिस दिन निबंध या पत्र का क्रम होता उससे पूर्व विद्यार्थियों को परामर्श देता कि वह घर में किसी भी निबंध की पुस्तक से निबंध विशेष को पढ़कर आए। निबंध के पीरियड में मैं कक्षा में निश्चित विषय पर अपने विचार प्रकट करता। इस विचार विमर्श के बीच में निबंध से संबंधित कुछ सुंदर शब्दों का अर्थ सहित कॉपी पर लिखवाता। कुछ श्रेष्ठ वाक्यों को भी कॉपी पर अंकित करवा देता। अगले सप्ताह छात्रों से उसी विषय पर कक्षा में ही निबंध लिखवाता। यही शैली पत्र लिखवाने के लिए भी अपनाता। इससे बच्चों को स्वयं निबंध तथा पत्र लिखने के लिए प्रोत्साहन मिलता और वे पुस्तक से नकल करने की आदत ग्रहण ना करते।
एक कार्य जो मैं अत्यंत निष्ठा से करता वह होता कॉपी लिखने का। मैं एक-एक अक्षर पढ़कर प्रत्येक छात्र की कॉपी शुद्ध करता। इसमें समय तो बहुत लगता है किंतु छात्र की बुनियाद सुदृढ़ करने का उपाय यही है। कांपिया लौटाते समय प्रत्येक विद्यार्थी का ध्यान उसकी व्यक्तिगत गलतियों और भूलों की और दिलवाता। साथ ही कक्षा में अपने ही सामने एक एक गलती को पांच-पांच बार लिखवाता। अध्यापक के आचरण का छात्रों पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। यदि मैं अध्यापक होता तो मेरा यह प्रयास होता कि मेरी व्यक्तिगत दुर्बलताओं का प्रदर्शन छात्रों के सामने बिल्कुल ना हो पाए। जैसे मुझे सिगरेट पीने का चस्का है किंतु मैं अपनी इच्छा पर इतना नियंत्रण रखूं कि विद्या के मंदिर में सरस्वती की आराधना करते समय यह दुर्व्यसन मुझे स्पर्श ना कर पाए।
मेरा यह निश्चित सिद्धांत होता कि काम न करने वाले छात्र परिस्थितियों को समझूं और उसे वही काम स्कूल के पश्चात जीरो पीरियड में करवाऊं। ‘भय बिन होय न प्रीति’ लोकोक्ति है किंतु मैं यथासंभव अपने स्नेह और व्यक्तित्व के प्रभाव से छात्रों से काम करवाता। हां कभी-कभी केवल अति उद्दंड छात्रों को दंड भी देता।