नागर जी द्वारा पढ़ाया गया कहानी ke sangrah Ka Nam
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1936 से ही नागर जी के सामाजिक चिंतन और लेखन में 'वाटिका' की मानसिकता से विच्छेद प्रकट होने लगता है। 'शकीला की माँ' 1938 में छपे उनके कहानी-संग्रह 'अवशेष' में संग्रहीत है। उसे, और इसी संग्रह के 'जंतर-मंतर को, इस संग्रह में उस दौर की प्रतिनिधि रचनाओं के रूप में शामिल किया गया है।
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