Hindi, asked by panav5572, 10 months ago

नौका विहार कविता में किस की तुलना चांदी के सांपों से की गई है

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Answered by sardarg41
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Answer:

शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!

अपलक अनंत, नीरव भू-तल!

सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,

लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!

तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,

लहरे उर पर कोमल कुंतल।

गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर

चंचल अंचल-सा नीलांबर!

साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर,

सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर।

चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,

हम चले नाव लेकर सत्वर।

सिकता की सस्मित-सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,

लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर।

मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर

तिर रही, खोल पालों के पर।

निश्चल-जल के शुचि-दर्पण पर, बिम्बित हो रजत-पुलिन निर्भर

दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर।

कालाकाँकर का राज-भवन, सोया जल में निश्चिंत, प्रमन,

पलकों में वैभव-स्वप्न सघन।

नौका से उठतीं जल-हिलोर,

हिल पड़ते नभ के ओर-छोर।

विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल

ज्योतित कर नभ का अंतस्तल,

जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किये अविरल

फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल।

सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी-सी जल में कल,

रुपहरे कचों में ही ओझल।

लहरों के घूँघट से झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक्-मुख

दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक।

अब पहुँची चपला बीच धार,

छिप गया चाँदनी का कगार।

दो बाहों-से दूरस्थ-तीर, धारा का कृश कोमल शरीर

आलिंगन करने को अधीर।

अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल, लगती भ्रू-रेखा-सी अराल,

अपलक-नभ नील-नयन विशाल;

मा के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप,

ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप;

वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता, हरने का निज विरह-शोक?

छाया की कोकी को विलोक?

पतवार घुमा, अब प्रतनु-भार,

नौका घूमी विपरीत-धार।

ड़ाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार,

बिखराती जल में तार-हार।

चाँदी के साँपों-सी रलमल, नाँचतीं रश्मियाँ जल में चल

रेखाओं-सी खिंच तरल-सरल।

लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल

फैले फूले जल में फेनिल।

अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह

हम बढ़े घाट को सहोत्साह।

ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार

उर में आलोकित शत विचार।

इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम,

शाश्वत है गति, शाश्वत संगम।

शाश्वत नभ का नीला-विकास, शाश्वत शशि का यह रजत-हास,

शाश्वत लघु-लहरों का विलास।

हे जग-जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आर-पार,

Answered by Anonymous
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शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!

अपलक अनंत, नीरव भू-तल!

सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,

लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!

तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,

लहरे उर पर कोमल कुंतल।

गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर

चंचल अंचल-सा नीलांबर!

साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर,

सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर।

चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,

हम चले नाव लेकर सत्वर।

सिकता की सस्मित-सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,

लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर।

मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर

तिर रही, खोल पालों के पर।

निश्चल-जल के शुचि-दर्पण पर, बिम्बित हो रजत-पुलिन निर्भर

दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर।

कालाकाँकर का राज-भवन, सोया जल में निश्चिंत, प्रमन,

पलकों में वैभव-स्वप्न सघन।

नौका से उठतीं जल-हिलोर,

हिल पड़ते नभ के ओर-छोर।

विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल

ज्योतित कर नभ का अंतस्तल,

जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किये अविरल

फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल।

सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी-सी जल में कल,

रुपहरे कचों में ही ओझल।

लहरों के घूँघट से झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक्-मुख

दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक।

अब पहुँची चपला बीच धार,

छिप गया चाँदनी का कगार।

दो बाहों-से दूरस्थ-तीर, धारा का कृश कोमल शरीर

आलिंगन करने को अधीर।

अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल, लगती भ्रू-रेखा-सी अराल,

अपलक-नभ नील-नयन विशाल;

मा के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप,

ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप;

वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता, हरने का निज विरह-शोक?

छाया की कोकी को विलोक?

पतवार घुमा, अब प्रतनु-भार,

नौका घूमी विपरीत-धार।

ड़ाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार,

बिखराती जल में तार-हार।

चाँदी के साँपों-सी रलमल, नाँचतीं रश्मियाँ जल में चल

रेखाओं-सी खिंच तरल-सरल।

लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल

फैले फूले जल में फेनिल।

अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह

हम बढ़े घाट को सहोत्साह।

ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार

उर में आलोकित शत विचार।

इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम,

शाश्वत है गति, शाश्वत संगम।

शाश्वत नभ का नीला-विकास, शाश्वत शशि का यह रजत-हास,

शाश्वत लघु-लहरों का विलास।

हे जग-जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आर-पार,

शाश्वत जीवन-नौका-विहार।

मै भूल गया अस्तित्व-ज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण

करता मुझको अमरत्व-दान।

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